मिथिलाक सामाजिक इतिहास
मिथिलाक अस्तित्व वैदिक कालहिसँ अद्यावधि सुरक्षित अछि। मिथिलामे आर्यक आगमनक पूर्व मिथिलाक सामाजिक व्यवस्थाक रूपरेखा केहेन छल से कहब असंभव। ओकर ठीक–ठीक अनुमान लगायबो संभव नहि अछि। मिथिलाक संस्कृतिक अविछिन्न प्रभाव रहल अछि। आजुक मिथिलामे हमरा लोकनि जे देखैत छी ताहिसँ बहुत भिन्न ओहि दिनक अवस्था सामान्य जनक हेतु नहि छल। प्रत्येक देशक अपन अपन देशगत विशेषता होइत छैक आ ओहिपर ओहि देशक भूगोलक प्रभाव रहिते छैक। मिथिला एहि नियमक अपवाद नहि रहल अछि आ रहबे किएक करैत? सामाजिक नियमक निर्माण कोनो एक दिनमे नहि होइत छैक आ सामाजिक व्यवस्थापर मात्र भूगोलक नहि अपितु आर्थिक व्यवस्थाक प्रभाव सेहो पड़इत छैक। पूर्व वैदिक कालमे समाजक व्यवस्था कठोर नहि बनल छल आ बहुत दूर धरि ओ व्यवस्था स्वच्छन्द एवँ मुक्त छल। समाजमे प्रत्येक व्यक्तिकेँ मुक्त वातावरणक अनुभव होइत छलैक आ ओ लोकनि कोनो स्थायी नियमक निर्माण कए नहि बैसि गेल छलाह। गतिशील समाज छल आ तैं विकासोन्मुख सेहो। एवँ प्रकारे ई समाज बहुतो दिन धरि चलल आ शनैः शनैः आर्यक विस्तार जहिना भारतवर्षक विभिन्न भागमे होमए लगलैक तहिना समाजोमे तदनुकुल परिवर्त्तन अवश्यम्भावी बुझना गेलैक आ समाजक महारथी लोकनि ओहि दिसि अपन ध्यान देलन्हि। साम्राज्यक विस्तारक संगहि अर्थनीतिक पेंच कसे जाए लागल आ समाज ओहिसँ भिन्न नहि रहि सकल। वर्णाश्रमक व्यवस्था, भने कोनो ऊँच्च आदर्शसँ भेलहो, पछाति ओ अपन दुर्गुणक संग हमरा लोकनिक समक्ष उपस्थित भेल आ जेना जेना वर्ग विभेद बढल गेल तेना-तेना एकर स्वरूप दिन प्रतिदिन विकृत होइत गेलैक। जँ से नहि होइत तँ मिथिलामे पुनः जनक सन शासक, याज्ञवल्क्य सन विधिनिर्माता एवं गौतम सन सूक्ष्म विचारक किएक नहि अवतीर्ण भेलाह? आ ने फेर उत्पन्न भेलीह कोनो गार्गी आ मैत्रेयी? एहि मूलतथ्यकेँ जाधरि हमरा लोकनि अवगाहन करबाक चेष्टा नहि करब ताधरि हमरा लोकनिक कल्याण नहि आ ने तत्वक उचित दिगदर्शने।
सर्वप्रथम चारि वर्णक उल्लेख ऋगवेदक पुरूष सूक्तमे भेटइत अछि। प्रारंभमे एहेन बुझि पड़ैत अछि जे जखन आर्य लोकनिक विस्तार भेलैन्ह आ हुनका लोकनिकेँ अहिठामक मूलनिवासीसँ सम्पर्क भेलैन्ह तखन दुहुक संस्कृतिमे पर्याप्त भिन्नता छल आ ओ लोकनिकेँ वर्णक विभाजन उचित बुझलन्हि आ तदनुकुल वर्णक विभाजन भेल। मिथिलामे आर्यक प्रसारक समय वर्णव्यवस्थाक प्रचलन भऽ चुकल छल। मुदा ताहि दिनमे अझुका कट्टरता देखबामे नहि अवइयै। विवाहादिक प्रसंगमे ऋगवेद आ शतपथ ब्राह्मणमे भिन्नता देखबामे अवैछ। ब्राह्मण आ क्षत्रियकेँ अपनासँ छोट वर्गमे विवाह करबाक अधिकार प्राप्त छलन्हि। ब्राह्मण कालमे शूद्र लोकनिक अवस्था शोचनीय भऽ गेल छल। एतरेय ब्राह्मणमे शूद्रक दुर्दशाक वर्णन भेटइत अछि। शूद्र लोकनि सब अधिकारसँ वंचित छलाह आ समाजमे हुनक स्थान निकृष्टतम् छलन्हि। कालांतरमे किछु एहेन व्यवस्था बनल जाहिमे ब्राह्मण-क्षत्रिय लोकनि सम्मिलित रूपें निम्नवर्गक शोषणमे रत भऽ गेलाह। एकर मूल कारण ई छल जे जँ-जँ सामाजिक व्यवस्था गूढ़ होइत गेल तँ तँ ई दुनू वर्ग उत्पादनक साधन एवं तत्संबधी ज्ञानक कुंजी अपना हाथमे दबौने गेलाह आ निम्न दुनू वर्गक लोग हिनका सबहिक अधीन होइत गेल। जखन आ कोनो चारा नहि रहलैक आ परिस्थिति दिनानुदिन बदतर होइत गेलैक तखन शूद्रकेँ वेदोसँ वंचित कैल गेलैक। एहि सब घटना क्रमक उल्लेख तत्कालीन साहित्य एवं कथा सबमे सुरक्षित अछि। दरिद्र लोकनिक की दशा रहल होइत तकर पूर्वाभास तँ महाभारतक अध्ययनसँ भेटइत अछि जतए इन्द्रोकेँ ई कहए पड़ल छन्हि जे दुःखक अनुभव करबाक हो तँ मर्त्यलोक जा कए हुनका लोकनिक संग रहिकेँ देखि आउ। महाभारतक अनुशासन पर्वमे एहि दृष्टिकोणक बहुत रास घटना वर्णित अछि।
समाजक वर्गीकरण दिनानुदिन विषम होइत गेल। शूद्र एवं अन्यान्य छोट छीन वर्ग़क लोग सब जमीनक अभावमे मजूर अथवा बेगारीक अवस्थाकेँ प्राप्त केलक आ ओम्हर दोसर दिसि गगन चुम्बी अट्टालिका ओकरा लोकनिक दयनीय एवं उपेक्षित आ असहाय अवस्थापर अट्टहास करए लागल। सूत्र एवं स्मृति साहित्यमे एहि बातक पुष्ट प्रमाण अछि। करहुक मामिलामे वैश्य-शूद्रेकेँ तंग होमए पड़इत छलन्हि। वैदिक युगमे जाति वा वर्गक निर्णय कर्मसँ होइत छल आ आन वर्णक लोगो अपन कर्मसँ ब्राह्मण भऽ सकैत छल। शतपथ ब्राह्मणक अनुसार राजा जनक याज्ञवल्क्यक उपदेश एवं अपन कर्तव्यसँ ब्राह्मण भेल छलाह। तैत्तिरीय ब्राह्मणमे विद्वानेकेँ ब्राह्मण कहल गेल अछि।
स्त्री, शूद्र, श्वान आ गायकेँ “अनृत”क संज्ञा देल गेल छैक। विवाहमे खरीद-बिक्रीक प्रथा छल। बहु विवाहक प्रथा सेहो छल। धनसम्पत्तिसँ सेहो स्त्रीगणकेँ वंचित राखल जाइत छल। पूर्व वैदिक कालक जे मुक्त वातावरण छल से आब समाप्त भऽ चुकल छल आ ओकर स्थान लऽ लेने छल संकीर्णता। सामाजिक दृष्टिकोणसँ संकीर्णताक समावेश घातक सिद्ध भेल। संकीर्णताक भावनाकेँ प्रश्रय देबाक हेतु अत्यधिक साहित्य एवं कर्मकाण्डी नियमक निर्माण भेल। ओना उपरसँ देखबामे तँ इएह बुझि पड़ैछ जे स्त्रीगणक स्थान समाजमे बड्ड उँच्च छलन्हि मुदा ई स्थिति वास्तविकतासँ बड्ड दूर छल। गार्गी आ मैत्रेयीक नामसँ कोनो देश अपनाकेँ गौरवान्वित बुझओ परञ्च हमरा लोकनिकेँ एतए ई स्मरण राखब आवश्यक जे ओ लोकनि नियमक अपवाद मात्र छलीह। ओहिठाम याज्ञवल्क्यक दोसर पत्नी कात्यायनीकेँ देखिऔक तँ बुझबामे असौकर्य नहि होएत जे समाजमे स्त्रीक वास्तविक स्थिति की छल? सुलभा आ गार्गीक देनसँ भारतक दर्शन भरपुर अछि। जतए एक दिसि मनुक्खकेँ अधिकाधिक विवाह करबाक अधिकार प्राप्त छलन्हि ओहिठाम एक स्त्रीकेँ दोसर विवाह करबाक आ दोसराक संग मेल जोलक कोनो अधिकार नहीं छलैक। सुरूचि जातकमे एकटा कथा सुरक्षित अछि जकर सारांश भेल-“मिथिलाक राज्य बड्ड विस्तृत अछि आ एहिठामक शासककेँ १६०००(सोलह हजार) पत्नी छन्हि”। एहिसँ प्रत्यक्ष भऽ जाइछ जे सामाजिक व्यवस्थामे स्त्रीगणक की स्थिति छल? एतरेय ब्राह्मणमे कहल गेल अछि जे पुतोहु अपन श्वसूरक सोझाँ नहीं जाइत छलीहे, जँ अनचोकसँ श्वसूरक नजरि पुतोहुपर पड़ि जाइत छलन्हि तँ पुतोहु बेचारी नुका रहैत छलीह। मिथिलामे पर्दा प्रथा आ पुतोहु-श्वसूरक सम्बन्धक ई प्राचीनतम उदाहरण भेल आ मैथिल समाजमे ताहि दिनसँ अद्यावधि कोनो विशेष परिवर्त्तन नहीं देखबामे अबैछ। विधवाक स्थितिओ प्रायः अझुके जकाँ छल। समाजमे विधवाकेँ हेय दृष्टिये देखल जाइत छल स्थिति बदतर छल। रखेल रखबाक प्रथा, दासी पुत्रक साथ दुर्व्यवहार, व्यभिचार एवं वेश्यावृत्तिक उल्लेख सेहो भेटैछ। राजदरबारमे असंख्य दासी पुत्री आ रखेलक व्यवस्था रहैत छल। मिथिलाक विभाण्डक मुनिक पुत्र ऋषि श्रृंग्यकेँ अंगक एकटा सुन्दरी फुसला लेने छलन्हि। किंवदंती अछि जे अंगक राजा लोमपाद अपन बेटी शांताकेँ एहि कार्यक हेतु अगुऔने छलाह। एहि घटनाक उल्लेख अश्वघोष सेहो कएने छथि।
“ऋष्य श्रृंग मुनि सुतं स्त्रीष्व पंडितम्।
उपायै विविधैः शांता जग्राहच जहारच”॥
पुराण आ जातकमे वर्णित समाजमे बहुत किछु समानता अछि। दिन प्रति दिन समाजमे कट्टरता एव अनुदार भावना जड़ि पकड़ने जाइत छल। धनक महत्व बढ़ए लागल छल आ विद्या आ विद्वानक महत्व क्रमशः घटए लागल छल। ओना तँ लक्ष्मी-सरस्वतीक आपसी द्वेष बौद्धयुगमे आबिकेँ विशेष रूपें चरितार्थ भेल छल मुदा ओहुँसँ पूर्वहुँ हमरा एहि सब वस्तुक स्पष्ट उदाहरण भेटइत अछि। ब्राह्मणक अपेक्षा धनाढ्यक प्रतिष्ठा बढ़ि रहल छल। आवश्यकतानुसार आब लोक अपन रोजगार चुनए लागल आ प्राचीन कालमे ब्राह्मण लोकनिक लेल जे खेती निषिद्ध मानल जाइत छल से आब नहि रहि गेल। ब्राह्मण खेती आ व्यवसाय दुनूमे लागि गेलाह। पुराणादिक अध्ययनसँ ई सब बात स्पष्ट भऽ जाइछ। बौद्ध साहित्यक अनुसार ब्राह्मण लोकनि अपन जीविकाक हेतु सब काज करैत छलाह। जातक तँ एहि प्रकारक कथा सबसँ भरले अछि। सामाजिक नैतिकतामे सेहो परिवर्त्तन भेल आ प्राचीन मूल्याँकनक मापदण्डमे सेहो समयानुसार उचित संशोधन आ परिवर्त्तन कैल गेल।
मनुक्खक जीवनक कमसँ कम तीनटा विभाजन सर्वप्रथम छान्दोग्य उपनिषदमे देखबामे अवइयै। उपनिषद कालमे मिथिलामे क्षत्रिय ब्राह्मणक स्तर धरि पहुँचि चुकल छलाह। ज्ञान एवं ब्रह्मविद्याक क्षेत्रमे ओ कोनो रूपें ब्राह्मणसँ कम नहि छलाह। उपनिषदमे कर्मकाण्डक विरोधमे उठैत भावनाक प्रदर्शन सेहो देखबामे अवइयै। उपनिषदमे हम जे देखैत छी ताहिसँ स्पष्ट अछि जे ओ युग मिथिलाक सामाजिक-साँस्कृतिक इतिहासक उत्कर्षक युग छल आ सब तरहे सुखी सम्पन्न सेहो। एक बात जे स्मरणीय अछि उ भेल ई जे मिथिलाक क्षत्रिय शासक कोनो रूपेँ ब्राह्मणसँ अपनाकेँ कम नहीं बुझैत छलाह आ ब्राह्मणोकेँ ई स्वीकार करबामे कोनो आपत्ति नहि छलन्हि। स्वयं याज्ञवल्क्य जनकक एहि गुणकेँ स्पष्ट रूपे मनने छथि आ गीतामे सेहो एकर संकेत अछि। वर्ण व्यवस्था ताहि दिनमे एतेक दृढ़ नहि भेल छल।
बौद्ध एवं जैन धर्म कार्य क्षेत्र सेहो मिथिलामे छल आ एकर प्रभाव तत्कालीन समाजपर पड़ब स्वाभाविके छल। अवैदिक धर्मक विकासक मुख्य स्थान छल मगध आ वैशाली सेहो ओहि प्रभावसँ अक्षुण्ण नहि छल। बौद्ध युग धरि अबैत अबैत ब्राह्मण सत्ताक भीत ढ़हि रहल छल आ क्षत्रिय लोकनिक प्रभाव चारूकात दिनानुदिन बढ़ि रहल छल। भोजन भावक नियमादिमे सेहो परिवर्त्तन अवश्यम्भावी भऽ गेल छल। जातकक अनुसार एहि युगमे ब्राह्मण लोकनि सबहिक संग भोजन भाव करैत छलाह आ एहेन ब्राह्मण सबकेँ कट्टर वैदिक लोकनि अपना पाँतीसँ फराके रखैत छलाह। सभहिक संग खेनिहार ब्राह्मण लोकनिकेँ पतित कहल जाइत छल। सामाजिक मान्यताक हेतु एहि युगमे संघर्ष चलैत रहल आ तरह तरहक उथल-पुथलक कारणे समाजमे सतत अस्थायित्व बनल रहल।
आजीविक, जैन, आ बौद्ध संप्रदायक प्रसारसँ वेदक अपौरूषेयतामे लोगक संदेह उत्पन्न होमए लगलैक आ एवं प्रकारे समाजक वर्गीकरणमे सेहो। कारण उपरोक्त तीनू सम्प्रदायक नेता वर्णव्यवस्थाक कट्टर विरोधी छलाह। एकरे प्रभाव स्वरूप जाति पातिक खाधि भोथा रहल छल आ एहि अग्निधार बहुत रास सड़ल विचारक होम सेहो भए रहल छल। प्रारंभमे वैशालीसँ आगाँ एहि विचार सबहिक दालि नहीं गलल छलैक परञ्च काल क्रमेण एकर प्रभावसँ मिथिला मुक्त नहि रहि सकल। वैशालियो पूर्णतः वर्ण-व्यवस्थासँ मुक्त नहि भऽ सकल यद्यपि बौद्ध लिच्छवी लोकनिकेँ तावतिंशदेव कहने छथि। धनक प्रभाव एहि सब क्षेत्रमे सेहो बनले छल आ गरीब मानवता कहिओ अपनापर होइत अन्यायक विरोधमे सशक्त भऽ कए ठाढ़ नहि भऽ सकल। लिच्छवी लोकनिक रहन सहन सेहो वर्गगत छलन्हि जँ एहि व्यवस्थामे कतहु कोनो प्रकारक छूट देखबामे अबैत हो तँ ओकरा नियमक अपवाद कहब। समाजक भद्र लोकनि चाण्डालकेँ हेय दृष्टिसँ देखैत छलाह आ समाजमे चाण्डालक स्थिति बदतर छल। ओ लोकनि नगरसँ बाहर रहैत छलाह। घृणित कार्य हुनके सबसँ कराओल जाइत छल। हुनका लोकनिक अवस्थामे सुधारक कोनो आसार देखबामे नहि अबैत छल।
भृत्य, गुलाम, बहिया आदिक स्थिति तँ आ चिंतनीय छल कारण ई लोकनि तँ शूद्रक कोटिमे छलाहे। स्वयं बुद्ध जे अपना मुँहसँ गुलामक अवस्थाक वर्णन कएने छथि ताहिसँ रोमाँच भऽ जाइछ। जातकमे चारि प्रकारक गुलामक वर्णन अछि। वहियाक प्रथा मिथिलामे अति प्राचीन कालसँ चलि आबि रहल अछि। कौटिल्यक अर्थशास्त्र आ अन्यान्य ग्रंथ सबमे एकर उल्लेख भेटइयै। वेश्याक प्रचलन ऐहु युगमे छल आ वैशालीक अम्बपालीक नाम तँ सर्वविदित अछिये। यद्यपि बुद्ध स्वयं एहि व्यवस्थाक विरोधी छलाह आ एतए धरि जे ओ स्त्रीकेँ संघमे एबासँ वर्जित करैत छलाह मुदा तइयो जखन अम्बपाली हुनका प्रति अपन भक्ति दरसौलक तखन बुद्ध ओकर निमंत्रण स्वीकार कए ओतए भोजन केलन्हि। अभिजात वर्गक लोक सबहिक ओतए गणिकाक ढ़ेर लागल रहैत छल। एहिमे बहुतो नृत्य एवं संगीत कलामे निपुण होइत छलीहे। कोनो कोनो राजदरबार १६०००गणिकाक उल्लेख भेटइयै। पर्दा प्रथाक संकेत बौद्धयुगमे भेटइत अछि।
बौद्धकालमे धनसम्पति आ राज्याधिकार सामाजिक मापदण्ड भेल आ क्षत्रिय लोकनिक महत्व समाजमे एतेक बढ़लन्हि जे ओ लोकनि आब विशेष रूपेँ आहूत होमए लगलाह। विदेह-वैशालीमे ओ लोकनि आ शक्तिशाली छलाह। वर्ण-व्यवस्थामे एवं प्रकारे सेहो थोड़ेक परिवर्त्तन हैव स्वाभाविक भऽ गेल। अशिक्षित ब्राह्मण लोकनि निम्नस्तरकेँ प्राप्त भेलाह। क्षत्रिय लोकनिक प्रभाव वृद्धिक सबसँ पैघ उदाहरण इएह भेल जे वैशालीक अभिषेक पुष्पकरिणीमे लिच्छवी राजा लोकनि अनका स्नान नहि करए दैत रहथिन्ह। समस्त लिच्छवी क्षेत्र तीन हिस्सामे वर्ग अथवा वर्णक आधारपर बटल छल आ प्रत्येक क्षेत्रक रहनिहार अपनहि क्षेत्रमे विवाहादि कऽ सकैत छल। पैघ वर्णक बालक जँ छोट वर्णक कन्यासँ विवाह करए तँ ताहि दिनमे एकर मान्यता छल मुदा एहिबात एकबात स्मरण राखबाक ई अछि जे राजकुमार नाभाग जखन एक वैश्य कन्यासँ विवाह केलन्हि तखन हुनका गद्दीसँ वंचित कए देल गेलन्हि। एहिसँ अनुमान लगाओल जाइत अछि जे राजदरबारमे अंर्तजातीय विवाहकेँ प्रोत्साहन नहीं देल जाइत छल। कुलीन परिवार एवँ अभिजात वर्गक सदस्यगण ताहु दिनमे एकर कट्टर विरोधी छलाह।
ब्रह्मचारी एवं धर्मप्रचारक लोकनि कतहु भोजन कऽ सकैत छलाह। ओ लोकनि जातीयताक बन्धनसँ अपनाकेँ मुक्त मनैत छलाह। शूद्र लोकनि भनसिया नियुक्त होइत छलाह। माँछ-माँउसक व्यवहार ब्राह्मण लोकनिक ओतए सेहो होइत छल। भोजन-भावमे मध्ययुगीन कट्टरता ताहि दिनमे नहि छल। गैर ब्राह्मण लोकनि सेहो सब किछु खाइत-पीबैत छलाह। छुआछूतक कट्टरता नहि रहितहुँ ई देखबामे अबैछ जे चाण्डालसँ सब केओ फराके रहैत छलाह आ चाण्डाल नगरक बाहर रहैत छल। चाण्डालकेँ अछूत बुझल जाइत छल आ जँ ओकर नजरि ककरो भोजनपर पड़ि जाइत छल तँ ओहि भोजनक परित्याग कैल जाइत छल। बुद्धक संघक स्थापनाक पछाति बहुतो शूद्र आ छोट वर्णक लोग सब ओहिमे सम्मिलित भेल छल।
वर्णाश्रमक प्रधानता तथापि बौद्धयुगमे बनले रहल। एहि युगमे ब्रह्म चर्याश्रमक प्रधानता विशेष छल। विभिन्न आश्रमक महत्वपर एहि युगमे बेस विवाद चलि रहल छल। विवादक मुख्य प्रश्न इएह छल जे वाणप्रस्थ आ सन्यासमे कोन उत्तम? ओना तँ एहि युगमे हम ई देखैत छी जे सन्यासक प्रवृत्ति दिनानुदिन बढ़ि रहल छल। मार्कण्डे पुराणक कथाक अनुसार वैशालीक राजा लोकनि-खनित्र, मरूत्त, वरिष्यंत, मंखदेव आदि-सन्यास ग्रहण कएने छलाह। ब्रह्मचर्य, ग्रार्हस्थ, वाणप्रस्थ आ सन्यासी सम्बन्धी नियम एखनो पूर्णरूपेण स्थायी नहि भेल छल। बौधायन धर्मसूत्रमे तँ वाणप्रस्थ आ सन्यासक प्रतिकूल वातावरण देखबामे अवइयै। किछु धर्मसूत्र सबमे गृहस्थाश्रमक अपेक्षा वाणप्रस्थक सराहना कैल गेल अछि मुदा इहो विचार ततेक संदिग्ध रूपे प्रगट भेल अछि जे ओहि सब आधारपर किछु निश्चित बात कहब अथवा कोनो मत निर्धारित करव असंभव। एहियुगमे परिवारक चर्च सेहो भेटइत अछि। ताहि दिन भिन्न-भिनाओज नीक नहि बुझल जाइत छल। कन्याक हेतु विवाहक निश्चित आयु १६वर्ष छलैक आ जाहि कन्याकेँ भाई इत्यादि नहि रहैत छलैक से अपन पैत्रिक धनक उत्तराधिकारिणी सेहो होइत छल। ‘स्त्रीधन’ सिद्धांतक विकास एहि युगमे भेल छल। सती प्रथाक उल्लेख सेहो ठाम-ठाम भेटइत अछि। वैशालीक राजा खनित्र आ वरिष्यंतक पत्नी सती भेल छलथिन्ह। मादरी जे अपनाकेँ एहि सतीत्वमे अनने छलीह ताहुसँ सती प्रथाक संकेत भेटइत अछि।
बौद्ध युगक ओना इतिहासमे अपन विशेष महत्व छैक परञ्च वैशालीक हेतु तँ ई स्वर्णयुग छल। जाहि पुष्करिणीक उल्लेख हम पूर्वहि कऽ चुकल छी ताहिमे स्नान करबाक हेतु श्रावस्तीक सेनापति बन्धुल मल्लक स्त्री मल्लिका व्यग्र छलीह आ एकर वर्णन हमरा जातकमे भेटइत अछि। जातकमे कहल गेल अछि…..
“वैसाली नगरे गणराज कुलानाम्।
अभिषेक मंगल पोक्खरी नम्॥
ओतरित्वा नहातापानीयम्।
पातुकम् अहि समीति”॥
बन्धुल अपन पत्नीकेँ लऽ ओहिठाम गेलाह मुदा पहरू लोकनि हुनका दुनूकेँ नहि जाए देलथिन्ह आ अंतमे एहि लेल युद्ध भेल आ ओ दुनू गोटए ओहिमे स्नान कऽ घुरइत गेलाह। एकर अतिरिक्त वैशालीमे आ कतेको दर्शनीय वस्तु छल– उदेन चैत्य, गोतमक चैत्य, सतम्बक चैत्य, बहुपुत्तक चैत्य, सारदन्द चैत्य, चापाल चैत्य, कपिनय्य चैत्य. मर्कट हृदतीर चैत्य, मुकुट बन्धन चैत्य, इत्यादि। वैशालीमे एहि युगमे महालि, महानाम, सिंह, गोश्रृंङ्गी, भद्द आदि नामक प्रधान व्यक्ति भेल छलाह। चुल्लुवग्गमे लिच्छवी भद्रक उल्लेख एहि प्रसंगमे अछि जे एकबेर हुनका बौद्ध संघसँ निष्काषित कऽ देल गेल छल मुदा पुनः सुधार भेलापर हुनका लऽ लेल गेल छल। ओहि समयमे समाजसँ निष्कासित करबाक प्रथा एवं प्रकारे छल–जाहि सभकेँ निष्कासित करबाक होन्हि तिनका भोजनार्थ निमंत्रण देल जाइत छलन्हि आ आसनपर बैठला उत्तर हुनक जल पात्रकेँ उलटि देल जाइत छलन्हि। पुनः जखन हुनका समाजमे लेल जाइत छलन्हि तखन ओहि पात्रकेँ सोझ कऽ केँ राखल जाइत छलैक। जाहि समयमे तोमर देव वैशालीक प्रधान छलाह तखन लिच्छवी लोकनि साज गोज कए हुनक स्वागत कएने छलाह। केओ नील, केओ स्वेत आ केओ लालरंगक शास्त्रास्त्र एवं आभूषण आ वेशभूषासँ सुसज्जित भए बु्द्धक स्वागतार्थ उपस्थित भेल छलाह। महविस्तुमे एकर विवरण एवं प्रकारे अछि-
“संत्यत्र लिच्छवयः पीतास्या पीतरथा
पीत रश्मि प्रत्योदयष्टि। पीतवस्त्रा,
पीतालंकारा, पीतोष्णीशा, पीतछत्राः
पीतखङ्ग मुनिपादुका।
पीतास्या पीतरथा पीतरश्मि प्रत्योदमुष्णीशा।
पीता च पंचक कुपा पीलावस्त्रा अलंकारा:॥
नीलास्या, नीलरथा, नीलरश्मि प्रत्यादमुष्णीशा।
नीला च पंचक कुपा नीलावस्त्रा अलंकाराः॥
वैशालीक आम्रकानन जाहिमे अम्बपाली रहैत छलीह सेहो बड्ड प्रसिद्ध छल। बौद्ध धर्मक इतिहासक दृष्टिकोणसँ सेहो वैशालीक अत्यधिक महत्व अछि। अहिठाम ई निर्णय लेल गेल छल जे स्त्री लोकनिकेँ संघमे प्रवेशक अनुमति देल जाइछ। एतहि भिक्षुणी संघक स्थापना सेहो भेल छल। आनंदक कहलापर बुद्ध एहिबातकेँ मनने छलाह आ एहिपर अपन स्वीकृति दैत बौद्धधर्मक सम्बन्धमे भविष्यवाणी सेहो कएने छलाह- “स्त्री जातिक प्रवेशसँ बौद्धधर्म आब ५००वर्ष धरि जीवित रहत”। वैशालीसँ जेबा काल बुद्ध इ कहि गेल छलाह जे आब ओ पुनः एतए घुरिकेँ नहि आबि सकताह। वैशालीक लोग सब इ सुनि बड्ड दुखी भेल छल–
“इदं अपश्चिमं नाथ वैशाल्यास्तव दर्शनम्।
न भूयो सुगतो बुद्धो वैशाली आगमिष्यति”॥
हुनका महापरिनिर्वाणक सए वर्ष बाद वैशालीमे बौद्धसंघक दोसर संगीति भेल छल। मिथिलाक माँटिमे एहेन प्रभाव जे अहिठामक लोग सब बेस तार्किक होइत छलाह। नागार्जुनक शिष्य भिक्षुदेव जखन वैशाली जेबाक हेतु प्रस्तुत भेलाह तखन नागार्जुन कहलथिन्ह-“ओना अहाँ जाए चाहैत छी तँ जाउ मुदा ई स्मरण राखब जे ओहिठामक नवीनो भिक्षुक लोकनि बड्ड जबर्दस्त तार्किक होइत छथि”।
जैन ग्रंथ सबसँ सेहो ताहि दिनक सामाजिक अवस्थाक विवरण भेटइयै। वैशालीमे क्षत्रिय, ब्राह्मण आ वणिक भिन्न-भिन्न उपनगरमे रहैत छलाह। सामाजिक क्षेत्रमे हुनका लोकनिक मध्य सहयोग एवं सहकारिताक भावना व्यापक छलन्हि। ओ लोकनि विदेशी अतिथिकेँ सम्मिलित रूपें स्वागत करबाक हेतु जाइत छलाह। ओ लोकनि बड्ड कर्मठ होइत छलाह आ रंगीन वस्त्रसँ विशेष प्रेम छलन्हि। दालि, भात, तरकारीक अतिरिक्त ताहि दिनमे माँछ-माँउसक प्रचलन सेहो छल। अपना नगरसँ हुनका लोकनिकेँ बड्ड प्रेम छलन्हि। हीरा, जवाहिरात, सोना, चानीसँ हुनका लोकनिक हाथी, घोड़ा, आ सवारी सजल रहैत छलन्हि। शिकार हुनका लोकनिकेँ बड्ड प्रिय छलन्हि। अंगुत्तर निकायक अनुसार लिच्छवी बालक लोकनि बड्ड चंचल आ नटखटिया होइत छलाह। लिच्छवी लोकनि स्वतंत्रता आ स्वाभिमानक प्रेमी छलाह। शिक्षा प्राप्त करबाक हेतु ओ लोकनि दूर-दूर देश धरि जाइत छलाह। विवाहक नियमावली लिच्छवी लोकनिक हेतु कठोर छलन्हि। जाहि कन्याकेँ विवाह करबाक विचार होन्हि से लिच्छवी गणकेँ सूचना दैत रहथिन्ह आ गणक दिसि हुनका लेल सुन्दर वर चुनल जाइत छल। स्त्रीक सतीत्वक रक्षार्थ लिच्छवी लोकनिक किछु उठा नहि रखैत छलाह। एहिमे राजा आ रंकमे कोनो कानूनी भेद नहि छल। मृतकक दाह संस्कारक सम्बन्धमे सेहो हुनका लोकनिक अपन नियम छलन्हि- मुर्दा जरेबाक, गारबाक, अथवा ओहिना छोड़ि देबाक प्रथा हुनका ओतए छलन्हि। मुर्दाकेँ गाँछमे लटकेबाक उल्लेख सेहो भेटइत अछि। हुनका लोकनि ओहिठाम एकटा उत्सव होइत छल जकरा “सब्बरतिवार” कहल जाइत छल जाहिमे ओ लोकनि भरि राति जागिकेँ नाच गान करैत छलाह आ एकर उदाहरण अंगुत्तर-निकायमे भेटइत अछि।
मौर्य युगमे सर्वप्रथम समस्त भारतक राजनैतिक एकीकरण भेल आ मिथिलाक क्षेत्र अखिल भारतीय साम्राज्यक अंग बनल। सामाजिक दृष्टिकोणसँ सेहो इ युग महत्वपूर्ण मानल गेल अछि। राज्यक स्वरूप मंगलकारी छल यद्यपि राजाक शक्तिमे अपार बृद्धि भेल छलैक। साँसारिकताकेँ प्रति आस्था लोगमे बढ़ि गेल छलैक आ प्रत्येक व्यक्ति जीवनकेँ सुखी रूपे व्यतित करबा लेल इच्छुक छल। ताहि दिनमे मनुष्य सुगठित, स्वस्थ आ बलवान होइत छल। वस्त्राभूषणक प्रति हुनका लोकनिक स्नेह विशेष रहैत छलन्हि आ खेलकूद, नाचगान आ संगीतक प्रचलन बढ़िया छल। मगधक राजधानी पाटलिपुत्र ताहि दिनमे संसारक सर्वश्रेष्ठ नगर छल आ प्रधान क्रीड़ा केन्द्र सेहो। एहि क्रीड़ाक अंतर्गत शाल-भंजिका एवं अशोक पुष्प प्रचायिका विशेष रूपे प्रचलित छल। कौटिल्यक अर्थशास्त्र आ अशोकक अभिलेखमे उत्सव, समाज, आ यात्राक उल्लेख भेटइत अछि जाहिमे आमोद-प्रमोदक व्यवस्था छल आ सब केओ बड्ड उत्साहसँ ओहिमे भाग लैत छलाह। कौटिल्य वर्णाश्रम धर्मक बड्ड पैघ समर्थक छलाह। एहि धर्मक समुचित पालन कराएब राजाक कर्तव्य छल। अशोकक शासन कालमे वर्णाश्रम धर्मपर विशेष ध्यान नहि देल गेल कारण अशोक स्वयं बौद्ध छलाह आ हुनका एहि व्यवस्थापर पूर्ण आस्था नहि छलन्हि। चन्द्रगुप्त मौर्य स्वयं शूद्र छलाह तैं हम देखैत छी जे एहि युगमे शूद्रक प्रति कौटिल्यक विचार मनुक अपेक्षा विशेष उदारवादी छल। वर्ण व्यवस्थाक अंतर्गत कतेको जाति–उपजाति बढ़ि गेल। मनु तँ बहुतों विदेशी जाति सबकेँ क्षत्रियक श्रेणीमे रखने छथि। मिथिलाक लिच्छवी लोकनिकेँ सेहो मनु व्रात्य कहने छथि। व्रात्यकेँ सेहो ओ चारि वर्णमे बटने छथि–व्रात्य ब्राह्मण, व्रात्य क्षत्रिय, व्रात्य वैश्य एवँ व्रात्य शूद्र। यवन दूत मेगास्थनीज लिखने छथि जे एहिठाम युनान जकाँ गुलामक व्यवस्था नहि छल। एहि युगमे स्त्रीकेँ अवस्थामे सेहो परिवर्त्तन भेलैक। कौटिल्य स्त्रीकेँ सम्पत्ति अर्जित करबाक आ रखबाक अधिकार देने छथिन्ह। अपन जेवरपर खर्च करबाक अधिकार सेहो हुनका लोकनिकेँ छलन्हि। जँ कोनो व्यक्तिकेँ बेटा नहि रहैक तँ ओकरा बेटीकेँ ओहि सम्पत्तिक स्वामित्वाधिकार भेटइत छलैक। स्त्रीक कल्याणक हेतु अशोकक समयमे “स्त्री–अध्यक्ष–महामात्र”क नियुक्ति भेल छलैक। गुलाम लोकनिक प्रति सेहो राज्यक विचार उदार छल। प्रत्येक गुलामकेँ अपन स्वतंत्रता प्राप्त करबाक अधिकार छलैक।
मौर्योत्तर कालमे चारि वर्णक व्यवस्था बनल रहल। जाति आ उपजातिक संख्यामे विशेष बृद्धि भेल। चारूवर्णक लोग अपना–अपना वर्णक अभ्यंतरहिमे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करैत छलाह। वराहमिहिरक वृहत्संहिताक अनुसार नगरमे चारूवर्णक भिन्न–भिन्न क्षेत्र होइत छल। चीनी यात्रीक विवरणसँ स्पष्ट अछि जे ब्राह्मण लोकनि पूज्य बुझल जाइत छलाह। ब्राह्मण लोकनिक शुद्ध जीवन व्यतीत करबाक प्रसंग सेहो ओहिमे भेटइत अछि। समाजमे ब्राह्मणक प्रतिष्ठा विशेष छल आ मनु ओकरा आ प्रतिष्ठित बनौलन्हि। नारदक अनुसार श्रोत्रिय लोकनिकेँ कर नहि लगबाक चाही। ब्राह्मण वर्गकेँ सब प्रकारक सुविधा प्राप्त छलन्हि। गुप्त युगमे ब्राह्मण लोकनिक वर्गीकरण वैदिक शाखाक अनुरूप भेल। पाछाँ आबिकेँ एकर आ वर्गीकरण भेल।
मौर्योत्तरकालीन भारतमे क्षत्रिय लोकनिक प्रधानता बढ़ल। शूंग वंश आ कण्ववंशक स्थापनासँ मिथिलामे पुनः ब्राह्मण धर्मक पुनर्स्थापन सम्भव भेल आ ब्राह्मण लोकनिक सत्तामे बृद्धि सेहो। एहियुगमे मिथिलाक ब्राह्मण मिथिलासँ बाहर जाए अपन शाखा–प्रशाखाक स्थापना कएने छलाह। शासन भार जे केओ लैथ हुनक धर्म क्षत्रियक धर्म भऽ जाइत छल। ओना सामान्यतः शासनक भार क्षत्रिय लोकनिक हाथमे रहैत छलन्हि। क्षत्रिय युद्धविद्या, कला, संगीतमे तँ पारंगत होइते छलाह संगहि ओ लोकनि विद्वान सेहो होइत छलाह। समुद्रगुप्तक प्रयाग प्रशस्तिसँ एहिपक्षपर विशेष प्रकाश पड़इयै। जे केओ शासक अथवा राजा होइत छलाह हुनके क्षत्रियक संज्ञा भेटइत छलन्हि। गुप्तशासक लोकनि ओना तँ क्षत्रिय नहि छलाह मुदा जखन राजा भऽ गेलाह तखन ओ क्षत्रिय कहबे लगलाह। राजाक गुणक विवरण बाणक हर्षचरितमे सेहो भेटइत अछि। कृषि आ व्यापारक भार वैश्यपर छलन्हि। इ लोकनि दान आ धर्मक प्रपक्षी होइत छलाह। स्थान–स्थानपर धर्मशाला, अस्पताल आ सत्रक स्थापना इ लोकनि बड्ड प्रेमसँ करबैत छलाह। व्यापार आ उद्योगक संचालनार्थ इ लोकनि अपना मध्य जे संगठन बनौने छलाह तकरा श्रेणी अथवा गिल्ड कहल जाइत छल। मिथिलामे श्रेष्ठी आ सार्थवाहक जे उल्लेख भेटइत अछि सेहो हिनके लोकनिक तत्वावधानमे बनैत छल। शूद्र लोकनिक स्थिति चिंतनीय छलन्हि। ओ लोकनि छोट छीन रोजगारक संग खेती गृहस्थी सेहो करैत जाइत छलाह। हुनका लोकनिकेँ वेद पढ़बाक अधिकारसँ वंचित राखल गेल छल। बिना मंत्रक ओ लोकनि अपन यज्ञादि करैत छलाह। मूल रूपें ओ लोकनि दू भागमे बटल छलाह–सत्–शूद्र आ असत्–शूद्र। असत्–शूद्रकेँ अछूत कहल जाइत छलन्हि। अनुलोम–प्रतिलोम प्रथाक कारणे कतेको मिश्रित जातिक अर्विभाव समाजमे भऽ चुकल छल। चाण्डालक स्थिति यथावत् छल। मिथिलाक उत्तरी छोरपर थारू आ किरात नामक जाति सेहो बसैत छल।
विवाहादिक नियममे कोनो विशेष परिवर्त्तन एहियुगमे नहि भेल। अपन–अपन जातिक अंतर्गतहिमे विवाहादि होइत छल। अनुलोम–प्रतिलोम विवाहक उल्लेख सेहो यदा–कदा भेटिते अछि। मान्य व्यवस्थाक वावजूदो अंतर्जातीय विवाह सेहो होइते छल। गुप्तकालीन साहित्यमे ठाम ठाम गंधर्व विवाहक उल्लेख सेहो भेटइत अछि। एहियुगमे स्त्रीगणक स्थितिमे आ अवनति भेल। हुनका लोकनि शूद्रे जकाँ वेदक अध्ययनसँ वंचित राखल गेल। वेद मंत्रोच्चारण ओ लोकनि नहि कऽ सकैत छलीह। किछु गोटए पढ़ल–लिखल सेहो होइत छलीहे मुदा ओहन स्त्रीगणक संख्या महान समुद्रमे एकठोप तेल जकाँ छल। पर्दा प्रथाक सम्बन्धमे कालिदास घूंघट–घोघक उल्लेख केने छथि। एहि युगमे स्मृतिकार लोकनि विधवाक सम्बन्धमे आ कठिन नियम बनौलन्हि। शंख, अंगीरस आ हारीत स्मृतिमे तँ एतेक धरि कहल गेल आछि जे विधवाकेँ अपना पतिक चितापर जरिकेँ प्राणांत कए लेबाक चाही। तत्कालीन अभिलेखमे सेहो सतीक उल्लेख भेटइयै।
वस्त्राभूषणमे ताहिदिनक लोग शौकीन होइत छलाह। रेशमी सूती आ ऊनी कपड़ाक विशेष प्रचलन छल। धोती, साड़ी, साया, दुपट्टा, आंगी, जनेउ, बाला इत्यादिक व्यवहार होइत छल। मिथिलाक क्षेत्रसँ प्राप्त मूर्त्तिसँ तत्कालीन वेशभूषाक ज्ञान होइछ। लोग सब नाभीक नीचासँ धोती पहिरैत छलाह आ स्त्रीगण सब साड़ी सेहो ओहिना। स्त्रीगण सब साड़ीक संगे दूपट्टो ओढ़ैत छलीह। टोपीक व्यवहार सेहो होइत छल। नौलागढ़सँ जे एकटा माँटिक मुरूत भेटल अछि ताहिमे देखैत छी जे एक गोटए बेस सुन्दर मुरेठा बन्हने अछि। ई मुरूत गुप्तकालीन थिक। ओहुसँ पहिलुका आ एकटा सुन्दर स्त्रीक माटिक मुरूत ओतहिसँ भेटल आछि जाहिमे केश विन्यास शैली आ विशेषता देखबामे अवइयै। सौन्दर्य प्रसाधन एवँ श्रृंगार प्रक्रियाक रूप एहि दुनू माँटिक मुरूत बढ़िया जकाँ ज्ञात होइत अछि आ संगहि दु युगक सौन्दर्य साधनक ज्ञान सेहो। स्त्रीक मुरूत शुंगकालीन थिक। मिथिला आ वैशालीसँ प्राप्त माँटिक मुरूतसँ तत्कालीन सौन्दर्य प्रसाधनक चित्र भेटइयै। औंठी, कर्णफूल, कण्ठहार, बाला, इत्यादिक व्यवहार होइत छल। ताहि दिनमे जे मिथिलाक स्त्रीगण पाइत पहिरैत रहैथ तकरो अन्यतम नमूना मिथिलाक मुरूत सबमे भेटइत अछि। सुगन्धित तेल आ अन्यान्य सौन्दर्य साधनक व्यवहार सेहो ताहि दिनमे होइत छल। दाँतमे मिस्सी लगेबाक प्रथा सेहो छल आ हियुएन संग एकर उल्लेख कएने छथि।
गुप्तयुगक पछाति एवँ कर्णाटवंशक उत्थान धरि वर्णाश्रम धर्मक प्रधानता बनले रहल आ ठाम–ठाम कठोर सेहो भेल। स्मृतिकार लोकनिक रचनासँ एकर भान होइछ। अनुलोम–प्रतिलोमक फले अनेको वर्णशंकर उपजाति आदिक विकास भेल। असत् शूद्र अंत्यजक नामसँ पाँचम वर्णमे परिगणित भेल। एहियुगमे पंचगौड़क कल्पना सेहो साकार भेल आ पंचगौड़ ब्राह्मणक सूत्रपात सेहो ब्राह्मण लोकनि दोसरो वर्णक जीविकाकेँ अपनौलन्हि। यज्ञक संगहि संग ओ लोकनि मूर्त्तिपूजा आ पुरोहिताइक पेशा सेहो अपनौलन्हि। ब्राह्मण लोकनि सेनापतिक काजमे सेहो निपुण होमए लगलाह। पालवंशक अधीन बहुतो ब्राह्मण सेनापति रहैथ जकर उल्लेख पाल अभिलेखमे अछि। एहियुगमे ब्राह्मण लोकनिकेँ प्रचुर मात्रामे खेत दानमे भेटल छलन्हि आ ओ लोकनि पैघ–पैघ सामंत भेल छलाह आ जमीनकेँ दोसराक हाथे खेती करबाय ओ लोकनि अपन सामंत प्रदत्त राजनैतिक अधिकारक सुरक्षामे व्यस्त रहैत छलाह। ब्राह्मण–क्षत्रिय आब खेतियो दिसि भीर गेल छलाह।
शूद्र लोकनिक अवस्था आ दयनीय भऽ गेल छलैक। एहियुगसँ डोम, चमार, नट आदिक उल्लेख सेहो भेटइत अछि। भाटक उल्लेख तँ सहजहि भेटितहि अछि। एहियुगमे जातिकर्म, नामकरण, उपनयन, विवाह, श्राद्ध इत्यादि संस्कारक उल्लेख भेटइत अछि। विवाह संस्कार प्रधान सामाजिक संस्कार मानल जाइत छल। बहुपत्नित्वक उदाहरण सेहो भेटइत अछि। ब्राह्मण अन्य जातिक भोजन अथवा जल नहि ग्रहण करैत छलाह। एहियुगमे प्रायश्चितक विधान सेहो बनल। माँछ, माउँस आ मदिराक व्यवहार होइत छल। सिद्ध कवि लोकनिक लेखतँ एहि सब विवरणसँ भरल अछि। चर्यापद(मैथिलीक आदि रूप)मे एकठाम लिखल अछि जे स्त्री लोकनि मदिरा बेचइत छलीह। क्षत्रिय लोकनि विशेष मदिरा पान करैत छलाह। पहिरब–ओढ़बमे कोनो विशेष फर्क देखबामे नहि अवइयै। मूर्त्ति सबसँ श्रृंङ्गारिकताक भान होइछ। कर्णफूल, हार, भुजदण्ड, करघनी, कंगन, बाला आदि आभूषणक व्यवहार होइत छल। कुमकुम लगेबाक प्रथा सेहो छल। सतीप्रथाक प्रचलन तँ चलिये आबि रहल छल। एक लेखमे दीपावलीक उल्लेख सेहो भेटइत अछि–
“दीपोत्सव दिने अभिनव निष्पन्न प्रेक्षा मध्य मण्डपे”।
संगीत आ नृत्यक आयोजन तँ बरोबरि होइते छल। चर्यापदमे सतरंजक उल्लेख सेहो अछि। जूआक प्रथा प्रचलित छल। एहियुगमे अन्धविश्वास आ तंत्रमंत्रक प्रधानता बढ़ि चुकल छल। ज्योतिषपर लोकक आस्था जमि चुकल छल। विजयसेनक देवपारा अभिलेखमे ग्राम ललनाक नगर जीवनक अनभिज्ञता आ अबोधपनक उल्लेख भेल अछि। मुसलमान लोकनि भारतमे पसरि चुकल छलाह तैं एहि युगमे शुद्धिक सिद्धांतक प्रतिपादन सेहो भेल। मिथिलामे पान आ चौपाड़िक प्रचलन खूब छल।
शबरस्वामीक लेखसँ तत्कालीन मैथिल समाजक झाँकी भेटइत अछि। ओ ‘हूराहिरी’क उल्लेख कएने छथि। शतपथ ब्राह्मणमे कहल अछि–
“तस्माद वराहं गावोऽनु धावंती”।
गम्हरी, दही, दूध, चूड़ा, आदिक उल्लेख सेहो शबरस्वामीमे भेटइयै। इहो दास आ गुलामक उल्लेख कएने छथि। हुनका लेखनीसँ चिड़इ खेबाक प्रथाक अप्रत्यक्ष रूपे उदाहरण भेटइयै। दही भातक उल्लेख सेहो ओहिमे भेटइयै। माछ खेबाक निपुणताक वर्णनमे तँ एहने बुझि पड़ैत अछि–जेना शबरस्वामी नाचि उठल होथि। ओ खीर बनेबाक उल्लेख सेहो केने छथि।
“ये एकस्मिन कार्यिन विकल्पे न साधकाः
श्रूयंते ते परस्परेण विरोधिनोभवंति।
लोकवन्–यथा मत्स्यांन् न पयसा
समश्नीयादिति। यद्यपि
सगुणमत्स्या भवंति तथापि
पयसा सहन समश्यंते”।
एहियुगमे जातिक रूप कायस्थ जातिक विकास आ उत्थान भेलैक। उशनस आ वेदव्यासक स्मृतिमे कायस्थक उल्लेख जातिक रूपमे भेल अछि। याज्ञवल्क्य स्मृतिमे सेहो कायस्थक उल्लेख भेल अछि। गुप्तकालीन अभिलेखमे सेहो प्रथम कायस्थक उल्लेख भेटइत अछि। गुणैगार ताम्रपत्रमे सैनिक मंत्री लोकनाथकेँ कायस्थ कहल गेल छन्हि। बंगाल–पूर्णियाँ क्षेत्रक पुण्ड्रवर्द्धन भुक्तिमे तीन चारि पुस्त धरि चिरातदत्त (करण कायस्थ) राज्यपाल छलाह। ५५०ई.क पश्चात् कायस्थ लोकनि एक जातिक रूपमे समाजमे स्थापित भऽ चुकल छलाह। ‘प्रथम कायस्थ’ मुख्य सचिव होइत छलाह। कायस्थमे अखन विशेष उपजातिक वृद्धि नहि भेल छल। ‘करण’ सेहो कायस्थक द्योतक छलाह ओना ई एकटा ‘पद’ छल जाहिपर काज केनिहार सब केओ करणिक कहबैत छलाह आ जतए एकर मुख्यालय होइत छल तकरा अधिकरण कहल जाइत छल। मिथिलामे करण कायस्थक प्रभुता कर्णाटवंशक स्थापनाक संग बढ़लैक। वैशाली क्षेत्रमे ११–१२म शताब्दीक एकटा लेख प्राप्त भेल अछि जाहिमे करण कायस्थक उल्लेख अछि। ई लेख बुद्धक प्रतिमाक पादपीठपर खोदल अछि। एहि मूर्त्तिक दान केनिहार करणिक महायान पंथी भक्त छलाह।
“देय धर्मोऽयम् अवरमहायानयायिनः
करणिकोच्छाहः माणिकसुतस्य”–
एवँ प्रकारे हम देखैत छी जे कर्णाट वंशक स्थापना धरि मिथिलाक समाज सब स्टेजसँ गुजरि चुकल छल। नान्यदेवक पछाति मिथिलाक अपन निखार प्रत्यक्ष भेलैक आ सामाजिक क्षेत्रमे जे क्रांतिकारी परिवर्त्तन भेलैक तकरे हमरा लोकनि हरिसिंह देवी प्रथाक नामे जनैत छी जकर प्रभाव अखन धरि मिथिलामे बनल अछि।
पंजी प्रथाक विकास:- महाराज हरिसिंह देव कर्णाटवंशक अंतिम शासक छलाह जे मुसलमान द्वारा पराजित भऽ पड़ा गेला। पड़ेबासँ पूर्व मिथिलाक सामाजिक नियमनक हेतु ओ जे एकटा विस्तृत व्यवस्था केलन्हि ओकरे अघुना हमरा लोकनि–‘हरिसिंह देवी’ प्रथाक नामे जनैत छी अथवा सुसंस्कृत भाषामे एकरा पंजी प्रथा कहल जाइत अछि। एहि सम्बन्धमे अखनो धरि कैक प्रश्नपर विद्वानक बीच मतभेद बनले अछि। ओना एहि प्रथाक जन्म देनिहार तँ हरिसिंह देवकेँ मानल जाइत छन्हि मुदा किछु विद्वानक अनुसारे एकर इतिहास प्राचीन अछि। कुलीन प्रथाक स्थापना जँ जन्मक विशुद्धतापर भेल छल तखन तँ एहि प्रसंगपर मीमाँसक कुमारिल भट्टक मंतव्य जे तंत्रवार्तिकमे प्रसारित अछि से देखब आवश्यक–
“विशिष्टेनैव हि प्रयत्नेन महाकुलीनाः
परिरक्षंति आत्मानम्।
अनेनैव हि हेतुना राजभिर्ब्राह्मणैश्च
स्वपितृपितामहादि पारम्पर्या–
विस्मरणार्थ समूहलेख्यानि प्रवर्तितानि
तथा च प्रतिकूलं गुणदोष स्मरणात्तदनुरूपः
प्रवृत्ति निवृत्तयो दृश्यंते”॥
अर्थ भेल जे कुलीनकेँ अपन जातिक रक्षाक हेतु बड्ड प्रयत्न करए पड़इत छन्हि। तहि सँ क्षत्रिय एवँ ब्राह्मण लोकनि अपन पिता पितामह प्रभृति पूर्वजक नाम बिसरि नहि जाइ तँ “समूह संख्य” रखैत छथि आ प्रत्येक कुलमे गुण–दोषक विवेचन कए तदनुसार सम्बन्ध करबामे प्रवृत होइत छथि।
जँ एहि प्रमाणकेँ कुलीन प्रथा अथवा पाँजि रखबाक प्रथाक प्रारंभ मानल जाइक तँ इ कहए पड़त जे सर्वप्रथम एकर उदगम मिथिलामे भेल आ बादमे जखन लोग एकरा बिसरि गेलाह छल तखन हरिसिंह देव ओकरा वैज्ञानिक पद्धतिपर पंजीबद्ध करौलन्हि। सातम–आठम शताब्दीसँ हरिसिंह देव धरिक कालमे जँ लोग एहि ‘समूह लेख’ पद्धतिकेँ विसैरि गेलाह तँ कोनो आश्चर्यक गप्प नहि कारण एहि बीचमे मिथिलापर चारूकातसँ आक्रमण होइत रहल छल आ एक अस्थिरताक स्थिति व्यापक छल। कर्णाटवंशक स्थापनाक बाद पुनः एक प्रकार स्थायित्व आ नवजागरण आएल आ तैं सामाजिक उच्छृखंलतापर पूर्णविराम लगेबाक हेतु सामाजिक नियमनक आवश्यकता लोककेँ बुझि पड़लैक आ हरिसिंह देवकेँ ई श्रेय छन्हि जे ब्राह्मण–क्षत्रिय मध्य प्रचलित प्राचीन पद्धति अपना शासन कालमे पूर्णरूपेण वैज्ञानिक बनौलन्हि।
स्वर्गीय रमानाथ झाक अनुसारे समूह लेख्य पाँजि जकाँ राखल जाइत छल आ प्रत्येक वैवाहिक सम्बन्ध भेल उत्तर ओहिपर टीपि लेल जाइत छल। कुमारिलक ‘समूह लेख्य’ समस्त ब्राह्मणक एकत्र संग्रहित भऽ पंजी कहाओल। एहि परिचय सबहिक आधारपर एक एक कुल एक एकटा नाम दऽ देल गेल जे नाम ओहिकुलक पूर्वजक आदिम ज्ञात निवास स्थान गामक नामपर भेल ओ सैह ओहि कुलक मूल कहाओल। कुमारिलक समएमे गुणदोषक विवेचन लोग स्वयं करैत छल मुदा हरिसिंह देवीक बाद आब परिचयक आधारपर गुण–दोषक विवेचण होएब प्रारंभ भेल। बंगालक कुलीन प्रथा जाति मूलक छल आ अकुलीनक संपर्क होइतहुँ कुलीन अपन कुलीनत्वसँ पतित भऽ जाइत छल। मिथिलामे उच्चता–नीचताक अवधारण स्मृतिक अनुसारहि भेल। मनुक उक्ति देखबा योग्य अछि–
“कुविवाहैः क्रियालोपैर्वेदाध्ययनेन च
कुलान्यकुलताँ यांति ब्राह्मणातिक्रमेण च”–
उत्तमैरूत्तमैर्नित्यं सम्बन्धानाचरेत्सह
निनिषुः कुलमुत्कर्षमधमानधमाँस्त्यजेत्”॥
उपरोक्तसँ स्पष्ट अछि जे जातिक अपकर्ष किंवा उत्कर्ष वैवाहिक सम्बन्धसँ नियमित होइत छल। मुदा मात्र जन्मक शुद्धिमात्र एकर नियामक नहि छल। भवभूतिक मालती माधवक टीकामे धर्माधिकरणिक जगद्धर लिखने छथि–
“जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्काराद् द्विज उच्यते
विधया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते”॥
एतवा सब किछु रहितहुँ विद्या ओ आचारकेँ गौण मानि मात्र जन्मक उत्कर्षकेँ प्रधानता दए सामाजिक नियमन जहियासँ आरम्भ भेल तहियेसँ एहि व्यवस्थामे दोष आबए लागल। विवाहक सम्बन्धमे प्राचीन कालहिसँ किछु नियम बनल छल–विवाहक अधिकार ओहि कन्यासँ भऽ सकैत अछि जे–
i) एक गोत्रक नञि हो।
ii) एक प्रवरक नञि हो।
iii) माएक सपिण्ड नञि हो।
iv) बापोक दिसि कोनो पूर्वजक ६पुश्त धरि निम्न नञि हो।
v) माएक दिसिसँ कोनो पूर्वजक ५पुश्त धरि निम्न नञि हो।
vi) पितामह–मातामहक संतान नञि हो।
vii) कठमाम (सतमाएक भाई)क संतान नञि हो।
स्वजनक संग विवाह नहि भऽ सकैत चल कारण ओहन विवाहसँ उत्पन्न संतानकेँ चण्डाल कहल जाइत छलैक। मिथिलामे स्मृतिसारक रचयिता हरिनाथसँ एहने गलती भऽ गेल छलन्हि आ तैं हरिसिंह देव पंजी प्रथाक निर्माण केने छलाह सएह कहल जाइत अछि। सब केओ ई कथा जानने छथि तैं अहिठाम एकरा दोहराएब हम आवश्यक नहि बुझैत छी। हरिनाथ अन्धकारमे विवाह कऽ लेने छलाह कारण हुनक पत्नी हुनक साक्षात पितिऔत भाइक दौहित्री छ्लथिन्ह। जाहि समूह लेखक उल्लेख हम पूर्वहिं कैल अछि हरिसिंह देव ओकरे वैज्ञानिक पद्धतिपर आनि पंजी प्रथाक जन्मदाता कहबैत छथि। हरिसिंह देवक आदेशानुसार सब ब्राह्मणक परिचय संग्रहित भेल आ ओहि संग्रहकेँ विशिष्ट पंडितक जिम्मा लगा देल गेल जे सब किछु देखि अधिकार निर्णय करैथ आ विवाहक हेतु प्रमाण पत्र दैथ–ओहि प्रमाण पत्रकेँ ‘अस्वजन’ पत्र कहल जाइत छैक। संग्रहित परिचयमे प्रत्येक विवाह आ विवाहक संतानक नाम जोड़ल जाइत छल आ उएह परिचय पञ्जी कहाओल आ जिनका जिम्मा एकर भार देल गेलन्हि सैह पञ्जीकार कहौलथि। ‘अस्वजन पत्र’ लिखके देबाक प्रथा सिद्धांत कहाओल जे अद्यावधि ब्राह्मण आ करण कायस्थमे प्रचलित अछि।
जे लोकनि परिचय एकत्र करैत छलाह से ‘परिचेता’ कहबैत छलाह–एहि प्रसंगमे गोत्र, प्रवर आ शाखा सेहो लिखल जाइत छल। सब परिचयकेँ गोत्रक अनुसार अलग–अलग रखलासँ प्रत्येक गोत्रक भिन्न–भिन्न कुलक चित्र समक्ष आबि जाइत छल। कुलक नाम कुलक प्राचीनतम ज्ञात निवास स्थानपर राखल गेल जे ओहि कुलक “मूल” कहाओल। बादमे गोत्र आ मूलसँ प्रत्येक वंशक संकेत भेटए लागल। गुप्त युगहिंसँ एहिबातक प्रमाण भेटइत अछि जे ब्राह्मण अपन ग्राम अथवा निवास स्थानहिसँ चिन्हल जाइत छलाह आ गुप्तयुगसँ पाल युग धरिक अभिलेख सबमे ब्राह्मण लोकनिक चारि–पाँच पुस्तक विवरण भेटइत अछि। ब्राह्मण लोकनि जाहि–जाहि गाममे निवास करैत छलाह ताहि–ताहि गामक प्रशंसा सेहो अभिलेख सबमे भेटइत अछि। मध्ययुगमे राढ़क ब्राह्मण लोक ५६उपजातिमे बटि गेल छलाह आ हिनका लोकनिक वर्गीकरण गाम–गाँइ–गामीकक आधारपर भेल छलन्हि। ११–१३म शताब्दीक अभिलेखमे एकर उल्लेख भेटइत अछि। ठीक अहिना हरिसिंह देव मूल–निवासक आधारपर ब्राह्मण लोकनिकेँ करीब १८०मूलमे बँटने छलाह आ मिथिलाक करण कायस्थकेँ करीब ३५०मूलमे। अहिना अम्बष्ट कायस्थ सेहो करीब १००घरमे बटल छथि। ब्रह्मवैवर्त्त पुराणक ब्रह्मखण्डमे कहाबत अछि जे देश भेदसँ जाति भेद उत्पन्न होइछ आ मध्ययुगीन पंजी परम्परा जे जोड़ देल गेल अछि से एहिबातक सबूत मानल जा सकइयै। गाम–गामक महत्व बढ़ए लागल। संग्रहित पाँजिमे जे सबसँ प्राचीनतम ज्ञात पुरूषक नाम उपलब्ध भेल उएह ‘बीजी–पुरूष’ कहौला। जँ एक्के गामक वासी दु कुलमे भेटला तँ हुनक भेदकेँ स्पष्ट करबाक हेतु कुलक मूलक संगहि–संग नव निवास स्थानक नाम जोड़ि देल गेल।
मिथिलाक ब्राह्मण लोकनि सामवेद आ शुक्ल यजुर्वेदक अनुयायी छथि–सामवेदी कौधुम शाखीय छथि आ यजुर्वेदी माध्यन्दिन शाखीय। क्रमशः इ दुनू छन्दोग आ वाजसेनयि कहबैत छथि। सामवेदी–छन्दोगमे मात्र शाँडिल्य गोत्र प्रचलित अछि आ माध्यन्दिन वाजसेनयिमे वत्स, काश्यप, पराशर, कात्यायन, सावर्ण आ भारद्वाज। एहि सात गोत्रक कुल व्यवस्थित कहबैत छथि। ब्राह्मणक आ ग्यारहटा गोत्र जे मिथिलामे अछि से भेल–गार्ग्य, कौशिक, अलाम्बुकाक्ष, कृष्णात्रेय, गौतम, मौदगल्य, वशिष्ठ, कौण्डिन्य, कपिल आ तण्डि। प्रत्येक गोत्रमे कैकटा मूल अछि। ओना तँ लगभग २००मूलक आभास भेटइत अछि परञ्च ब्राह्मण विद्वान लोकनि मात्र सात गोट गोत्र आ ३४या ३६टा मूलकेँ व्यवस्थित मानैत छथि। मिथिलामे कुलीनताक परिचायक छल जन्मक विशुद्धता, आचारक चारूता आ विद्या व्यवसाय–एहि तीनुसँ युक्त व्यक्तिकेँ श्रोत्रिय कहल जाइत छलन्हि। एहिठाम स्मरणीय जे पाँजिमे मात्र परिचय संग्रहित अछि जाहि आधारपर विवाहक अधिकारक निर्णय होइत अछि। हरिसिंह देव ब्राह्मणकेँ तीन श्रेणी (श्रोत्रिय, योग्य, जयबार)मे बँटने छलाह–ई कथन निराधार अछि। आदर्शकेँ बिसरिकेँ जखन हमरा लोकनि केवल भेदपर जोड़ देब प्रारंभ कैल तखनहिसँ एहि व्यवस्थामे कुरीतिक प्रवेश भेल। जे जे नीच काज करैत गेलाह से क्रमशः नीच होइत गेला। ब्राह्मण पाञ्जिक अनुसार अधिकार निर्णयक नियम एवँ प्रकारे अछि–
i) कन्याक पिताक पितामहक पितामह।
ii) कन्याक पिताक पितामहक मातामह।
iii) कन्याक पिताक पितामहीक पितामह।
iv) कन्याक पिताक पितामहीक मातामह।
v) कन्याक पिताक मातामहक पितामह।
vi) कन्याक पिताक मातामहक मातामह।
vii) कन्याक पिताक मातामहीक पितामह।
viii) कन्याक पिताक मातामहीक मातामह।
ix) कन्याक माताक पितामहक पितामह।
x) कन्याक माताक पितामहक मातामह।
xi) कन्याक माताक पितामहिक पितामह।
xii) कन्याक माताक पितामहीक मातामह।
xiii) कन्याक माताक मातामहक पितामह।
xiv) कन्याक माताक मातामहक मातामह।
xv) कन्याक माताक मातामहीक पितामह।
xvi) कन्याक माताक मातामहीक मातामह।
आठम पीढ़ीसँ सपिण्डत्व हटि जाइत छैक।
मिथिलामे पाञ्जिक अध्ययन अखनो वैज्ञानिक पद्धतिसँ नहि भेल अछि कारण ओकर साहित्य एतेक जटिल अछि जे सब केओ ओकर अध्ययन कइयो नहि सकैत छथि। रमानाथ बाबूक अतिरिक्त आ एकाध गोटए पाञ्जिक अध्ययन कएने छथि मुदा पूर्णरूपेण वैज्ञानिक ढ़ँग आ तालपत्रपर लिखित पाञ्जिक अध्ययन मेजर विनोद बिहारी वर्मा अपन “मैथिल करण कायस्थक पाञ्जिक सर्वेक्षण”मे कएने छथि। ई अध्ययन अपना ढ़ँगक अद्वितीय अछि आ पाञ्जिक अध्ययनक क्षेत्रमे ई अपन एकटा नव कीर्तिमान स्थापित केलक आछि। तालपत्र हिनक काफी प्राचीन अछि आ पाँजि प्रथाक स्थापनाक लगभग ५०वर्षक अभ्यंतरहिमे लिखल अछि। एहि आधारपर अखन आरो कतेक अध्ययन प्रस्तुत कैल जा सकइयै। पाँजि प्रथाक नींव जाहि आधारपर पड़ल तकरा सम्बन्धमे मेजर वर्मा लिखैत छथि–
चण्डेश्वर ठाकुरक गृहस्थ रत्नाकरसँ उद्धृत किछु स्मृतिकारक कथन उद्धृत कैल जाइछ जाहिपर पाँजी प्रथाक नींव पड़ल।–
मनुशातातपौ:-
असपिण्डा तुया मातुर सगोत्रा चयापितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनाँ दार कर्म्मणि मैथुने॥
एवँ प्रकारे ओ गौतम, याज्ञवल्क्य, हारीत, विष्णुपुराण आदिसँ विभिन्न मत उपस्थित कएने छथि। पाँजि जखन उपस्थित कएल गेल तखन देशक स्थिति चिंतनीय छल। करण कायस्थ पाञ्जिक अध्ययनसँ स्पष्ट होइछ जे कठोर बन्धनक पश्चातो पाँजिमे “स्वयं गृहीता” कन्या, “चेचिक विजाती”सँ व्याहक उल्लेख, “कुलाल” जातिक उल्लेख, “चेटिका धृताः” आदिक यत्र–तत्र विवरण भेटइत अछि। जातिक रक्षा करब पाञ्जिक एकमात्र प्रयोजन छल परञ्च कायस्थ पाञ्जिक अध्ययनसँ स्पष्ट अछि जे किछु अंतर्जातीय विवाह सेहो होइत छल। करण कायस्थक पाञ्जिमे गोत्रक उल्लेख नहि अछि। बलायिन मूलक आदि पुरूष मंधदासक गोत्र राढ़मे अत्रि, कुचबिहारमे वशिष्ट आ मिथिलामे काश्यप लिखल गेल अछि। पाञ्जिमे कतहु नहि कहल गेल अछि जे अमूक मूल श्रेष्ठ आ छोट अछि आ ने भलमानुसे–गृहस्थक चर्च ओहिमे कतहु अछि।
पाञ्जिक पूर्ण शिक्षा प्राचीन कालमे पञ्जीकार लोकनिकेँ देल जाइत छलन्हि आ प्राचीन पाठशालामे मिथिलामे पाञ्जि शास्त्रक पढ़ाइ होइत आ जे एहिमे उत्तीर्ण होइत छलाह सएह ‘पञ्जीकार’ होएबाक योग्यता प्राप्त करैत छलाह। पञ्जीकारकेँ निम्नलिखित वस्तुसँ अवगत हैव आवश्यक छल–
i) मूल निर्णय,
ii) डेरावली,
iii) वंशावली,
iv) सादा उतेढ़।
पाञ्जि लिखबाक हेतु किछु नियमक पालन आवश्यक छल। पञ्जीक एक पातक एक पृष्ठक सोलह कालम आ गाम एवं प्रकारे विभक्त कैल गेल अछि–
मायक वंशक हेतु आठ कालम आ गाम।
पितामहीक वंशक हेतु चारि कालम आ गाम।
प्रपितामहीक वंशक हेतु दू कालम आ गाम।
वृद्धा प्रपितामहीक वंशक हेतु एक कालम आ गाम।
अपन स्वयंक ५पीढ़ी पूर्वजक हेतु एक कालम आ गाम।
पाञ्जिक १६कालम विभक्त देखबामे अवइयै। एक पातक एक पृष्टमे १६मूल गामक उल्लेख रहैत अछि–३१व्यक्तिक नाम आ १६कन्याक नामक उल्लेख रहैत अछि। अधुना पाञ्जि देखबाक अथवा अध्ययन करबाक अवगति आब पञ्जीकारोकेँ नहि छन्हि। कायस्थक पञ्जीकार मूलतः दुई वंशक छथि–महुनी आ सीसब। पाञ्जिमे जातीय इतिहास सुरक्षित अछि।
पंञ्जीक तिथि:-पञ्जीक तिथिक सम्बन्ध सेहो विद्वानक बीच मतभेद अछि। सब तथ्यक अनुशीलन केला उपरांत हमरा अपन विचार इ अछि जे पञ्जीक प्रारंभ १३१०–११ ई.मे भेल होएत। १३२३ सँ १३२७ धरिक तिथि जे मनैत छथि से हमरा बुझने मान्य नहि भऽ सकइयै कारण १३२३सँ १३२७क बीच हरिसिंह देव मुसलमानी आक्रमणसँ ततेक तबाह आ व्यस्त छलाह जे ओहि समयमे कोनो एहेन काज करब असंभव छल। नेपाली श्रोतसँ इहो ज्ञात होइछ जे हरिसिंह देव १३२६ई. धरि मिथिलासँ पड़ा चुकल छलाह आ तकर बादक हुनक इतिहासक कोनो निस्तुकी पता हमरा लोकनिकेँ नहि अछि। काठमाण्डुक वीर पुस्तकालयक गोपाल वंशावलीक मूल एतए विज्ञ पाठकक हेतु देल जा रहल अछि –
“स माघ शुदि ३ तिरहूतिः हरशिंहु राजासन
मिह्लोसन तासत्र गही टो ढ़ीलीस तुरूक याके
वंङ रायत मानालपं थमु अगु गन याङ वस्यं
शिमरावन गड्ढ़ भङ्ग याङ तिरहूतिया राजा महाथ
आदिन समस्त वडङ व्यसन वंग्व टों ग्वलछिनो
लिन्दुंबिल ववः ग्वलछिनो राजगाम द्वलखा धारे वंग्व।
हिंपोतस राजा हरसिंह तो शिकथ्वस
काय नो मआथ नो उभय बंधि यंङा कूलन
ज्वोङाव हंग्व राज गामया मझीधारो
धायान समस्त धन कासन”।
उपरोक्त वंशावलीसँ स्पष्ट अछि जे हरिसिंह देव ७जनवरी १३२६केँ शिमराँव गढ़क नष्ट भ्रष्ट भेला पड़ेला आ तकर बाद ओ मरि गेला। राजगाँवक माँझी भारो हुनक पुत्रकेँ गिरफ्तार कए कैदी बना लेलकन्हि आ हुनक सब वस्तुजात लूटि–पाटि लेलकन्हि। ओ शरणार्थीक श्रेणीमे छलाहे शासक हिसाबमे नहि। एहि प्रसंगकेँ जखन हमरा लोकनि ध्यानमे राखब तखन बुझना जाएत जे पञ्जी प्रबन्ध सन काजक प्रारंभ १३२३–१३२७क बीच नहि भेल होएत। मैथिल परम्परामे इ कहल गेल अछि जे शक् १२४८मे नेहरामे विश्वचक्र महादान कएने छलाह। ओ पञ्जी निर्णयार्थ विद्वान लोकनिक आह्वान कएने छलाह। शक् १२४८मे इ सम्भव नहि भऽ सकइयै कारण तखन ओ पराजित भऽ नेपाल पड़ा चुकल छलाह। रघुनन्दन झा द्वारा बनाओल पञ्जी प्रबन्धक आदिमे एहि तरहे श्लोक अछि–
“शाके श्री हरिसिंह देव नृपतेर्भूपार्क १२१६ तुल्ये जनि–
स्तस्माद्दंत मितेऽब्दकेँ द्विजगणैः पञ्जी प्रबन्धः कृतः”॥
१२१६+७८=१२९४ई. जखन हरिसिंह देव एकटा नाबालिकक रूपमे छल। अहु समयमे अहु समयमे पञ्जी प्रबन्ध सन मूल प्रश्नपर विचार करबाक क्षमता हिनकामे तखन नहि हेतैन्ह तैं इहो तिथि हमरा बुझने अमान्य अछि। शक्तिसिंहक समयसँ मिथिलामे अस्तव्यस्तता छल। चण्डेश्वर ठाकुर हरिसिंह देवक मुख्य सलाहकार छलाह आ राज्यक हेतु सब काज करैत छलाह। नेपाल विजयक अवसरपर तुला पुरूष सेहो केने छलाह। १३१४क आसपास हरिसिंह देव वयस्क भेलापर अपन राज्यक भार सम्हारलन्हि आ तखने चण्डेश्वरक तत्वावधानमे नेपाल विजयक खुशखबरी सेहो भेटलन्हि। ओम्हर मुसलमानी प्रकोप जोरसँ बढ़ि रहल छल तैं हेतु सामाजिक नियम निष्ठाकेँ सुदृढ़ करबाक हेतु हिनक ध्यान आकृष्ट कैल गेलन्हि आ
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