1. जमालपुर काली पहाड़ :-
जमालपुर स्थित काली पहाड़ी सदियों से प्राकृतिक छटाओं को लेकर आकर्षण का केंद्र रहा है I संभवत: यहां के प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर ही अंगरेजों द्वारा यहां रेल इंजन कारखाना की नींव डाली गयी थी. समीप के इस्ट कॉलोनी तब अंगरेज रेल अधिकारियों का आवास रहा था I
जमालपुर काली पहाड़ ३ किलोमीटर ऊँचा है पहाड़ के ऊपर से पूरा जमालपुर दिखाई देता है यह जमालपुर का सबसे सूंदर स्थल यहां दूर दूर से लोग
यमाला काली मंदिर के दर्शन करने आते हैं I काली पहाड़ी का उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में भी किया गया है I यह महाभारत कालीन प्राचीनता समेटे हुए है I बताया जाता है कि महाभारत काल में जब पांडव द्युत क्रीड़ा में हार गये थे तब अज्ञातवास के दौरान वे पांचाली के साथ काली पहाड़ी पर कुछ समय व्यतीत किये थे Iइस दौरान पांडु पुत्र अजरुन द्वारा यहां मां काली के विशिष्ट रूप यमाला देवी की स्थापना इमली पेड़ के नीचे की थी। आज भी वह पेड़ मंदिर के निकट है। इस पेड़ पर मनौती कर लोग पत्थर
बांधते ह I जिसके बारे में किं वदंती है कि यहां ढ़ेला बांधने से मन की मांगी मुराद पूरा होती है Iबशर्ते मुराद पूरी होने पर ढ़ेला खोला भी जाये I aur इनकी उपासना कर अर्जुन ने युद्ध में अजेयता का वरदान पाया था। काली पहाड़ नाम काली मां के मंदिर से पड़ा। यहां से कुछ दूर पर पाटम गांव है। जहां कुछ दिनों तक पांडवों ने प्रवास किया था व मनसा देवी की स्थापना की थी। पहले यह पांडव वन कहलाता था। कलांतर में पाटम हो गया। अन्य मान्यतानुसार पहाड़ की यमाला काली कालांतर में जमाला फिर जमाल बन गया, इसलिए शहर जमालपुर कहलाया। दूसरे 16वीं शती में एक सूफी जमाल साहब भ्रमण करते हुए इस पहाड़ी पर बस गए थे। उन्हीं के नाम पर यह जनपद जमालपुर कहलाया। सूफी की मजार ईस्ट कॉलोनी में है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यात्रा वृत्तांत में इस सौंदर्य का मनोहारी वर्णन किया है। सौंदर्य का उर्दू शब्द जमाल है। यह शहर आनंदमार्गियों का मक्का है। प्रभातरंजन सरकार उर्फ आनंदमूर्ति ने 1955 ई. में आनंदमार्ग प्रचारक संघ की स्थापना की थी। पहाड़ पर आनंदमूर्ति का साधनास्थल है। यहां वे नई ऊर्जा से संबलित हुए थे। मां काली की पूजा समय-समय पर होती रहती है। एक जनवरी और शिवरात्रि पर यहां काफी भीड़ लगती है। पहाड़ी के बीच का बड़ा तालाब मृत्युघाटी कहलाता है। पहले यहां जंगली जानवर रहते थे। तालाब दो भागों में बंटा है। एक ओर रेलवे का वाटर फिल्टर प्लांट है Iजहां से रेल इंजन कारखाना सहित विभिन्न रेलवे कॉलोनियों में पेयजल आपूर्ति की जाती है I इसकी स्थापना 18 सौ 60 की दशक में अंगरेजों द्वारा की गयी थी व दूसरी तरफ यमाला काली का प्रसिद्ध मंदिर है। कहते हैं यहां आने वाले श्रद्धालुओं की मुरादें यमाला काली पूरी करते हैं।
यहां पहली जनवरी, बड़ा दिन के मौके पर तो लोग पिकनिक मनाने आते ही है I अक्सर यहां सैलानी या स्थानीय लोग परिवार समेत चंद लम्हे प्रकृति की गोद में बिताने पहुंच जाते ह I
प्राकृतिक नहर लुभाती सैलानियों को Iकाली पहाड़ी की तराई में प्राकृतिक छटा समेटे दो नहर है. यहां जमालपुर वासी प्रति वर्ष छठ पूजा में अध्र्यदान करने पहुंचते हैं. नहर के पास से ही पहाड़ी पर चढ़ने का रास्ता शुरू होता है I
बदहाल हैं रास्ते, कठिन है डगर I सरकार की उदासीनता के कारण प्राचीन काली पहाड़ी अपनी रौनक खोती जा रही है Iपूर्व में पत्थर उत्खनन से जुड़े लोगों ने जहां इसे नुकसान पहुंचाया वहीं वन संपदाओं की अंधाधुंध कटाई ने भी इसे क्षति पहुंचाया है Iचढ़ाई के रास्ते खतरनाक हैं Iबैरियर नहीं रहने के कारण असावधानी एक बड़ा खतरा हो सकता है Iकाली पहाड़ी के उपर भले ही एक पोखर है, किंतु उसके अलावा वहां पानी की कोई व्यवस्था नहीं है I सैलानी वहां पानी ले जाने पर मजबूर रहते हैं I पिकनिक पार्टी ने भी इस स्थल की सुंदरता को नुकसान पहुंचाया है Iवे अपने साथ प्लास्टिक के थैले यहां तक तो लाते जरूर हैं पर उसे वहीं छोड़ जाते हैं Iजिसके कारण वहां गंदगी भी व्याप्त हो चुकी है |
2. मिथिला नगरी मुंगेर का योगाआश्रम :-
मिथिला(बिहार) के पावन भूमी से ही पूरी दुनिया में योग का विस्तार हुआ.🌟
पूरी दुनिया आज योग के रंग में रंगा है। योग भारत की पहचान है मगर क्या आपको पता है
मिथिला (बिहार) के पावन धरती से ही विश्व भर में योग का प्रसार हुआ।
मिथिला (बिहार )में ही विश्व का पहला अंतराष्ट्रीय योग स्कूल है।
मुंगेर में है विश्व का पहला योग केंद्र, सत्यानंद सरस्वती ने की थी इस योग विद्यालय की स्थापना
मुंगेर का योगाआश्रम, भारत ही नहीं पूरे विश्व में बिहार स्कूल ऑफ योगा के नाम से प्रसिद्ध है।
मिथिला(बिहार )के मुंगेर में स्थित ‘गंगा दर्शन’ योगाश्रम ने योग को विश्व पटल पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके माध्यम से स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने योग को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचा दिया। उन्होंने
मिथिला ( बिहार )में जिस योग क्रांति का सूत्रपात किया, उसका प्रभाव आज पूरी दुनिया पर दिख रहा है।
ज्ञान की इस रोशनी के बल पर यह संस्थान योग के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय योगदान कर रहा है। अपने परम गुरु परमहंस स्वामी शिवानंद की स्मृति में अखंड दीप प्रज्वलित कर वर्ष 1964 में वसंत पंचमी के दिन इसकी शुरूआत की थी।
21 जून को विश्व योग दिवस के अवसर पर भी यहां विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है।
गुरु व संन्यासी का मिलन स्थल ‘गंगा दर्शन’
गंगा दर्शन आश्रम कोई मठ-मंदिर नहीं, बल्कि यह गुरु व संन्यासी का वह मिलन स्थल है, जहां नि:स्वार्थ सेवा व सकारात्मक प्रवृत्ति का विकास किया जाता है।
स्वामी सत्यानंद ने गंगा तट पर डाली नींव
मुंगेर में गंगा तट पर स्थित एक पहाड़ी पर असामाजिक तत्वों का अड्डा था। यहां लोग दिन में भी जाने से डरते थे। यहां के ऐतिहासिक कर्णचौरा व प्राचीन जर्जर भवन पर शासन-प्रशासन की नजर नहीं थी। इस उपेक्षित स्थल पर वर्ष 1963-64 में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने अपने गुरु स्वामी शिवानंद सरस्वती की प्रेरणा से ‘शिवानंद योगाश्रम’ की स्थापना की।
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मिथिला नगरी मुंगेर का योगाआश्रम:-
मिथिला नगरी मुंगेर के ऐतिहासिक किले के भीतर देखने सुनने और समझने के लिए कितनी चीजें है इसका वर्णन करना संभव नहीं है। परन्तु किले के मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर सबसे उंची और भव्य इमारत दिखाई पड़े वह मुंगेर योगाश्रम है। सन 1964 में मुंगेर योगाश्रम का निर्माण महायोगी ब्रह्मलीन परमहंस स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने स्वयं अपनी कल्पनाओं के अनुरुप कराया था। कर्णचौरा के नाम से अभिहीत था यह भू-खण्ड। कहा जाता है कि महादानी कर्ण प्रतिदिन सवा मन सोना इसी स्थान पर दान दिया करते थे। कालांतर में इस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स अपने पत्नी के आरोग्य लाभ के लिए इसी भू-खण्ड पर हवा महल का निर्माण करवाया था। बाद में मिदनापुर के जमींदार ने इस महल को खरीद लिया था। सौ साल पूर्व तक वह भवन आबाद रहा जिसमें शताधिक कमरे बने हुए थे जो बाद में रूग्ण हो गए।
स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जब स्वनामधन्य केदारनाथ गोयनका के जलमंदिर के बगलवाले योगाश्रम में निवास करते थे, तब एक दिन वे किसी कारणवश मुंगेर जिले के भीतर गये तो उस कर्णचौरा पर दृष्टि पड़ी, जो पूरी तरह खंडहर में तब्दील हो चुका था। स्वामी सत्यानंद जी को वह स्थान अत्यंत जाग्रत दिखाई पड़ा। उन्होंने उस भू-खण्ड को साधना स्थली के लिए प्रयुक्त मानकर खरीद लेने का निर्णय किया। इस भू-खण्ड को स्वामी जी ने बिहार योग विद्यालय का नाम दिया। मगर उस भू-खण्ड के खरीदने के साथ ही विरोध बवंडर उठ खड़ा हुआ क्योंकि सैकड़ों की संख्या में असामाजिक तत्वों ने खंडहरनुमा इमारत में आश्रम ले रखा था परन्तु स्वामी जी जो एक बार निर्णय लेते थे उसे बदलते नहीं थे। उन्होंने विरोध का सामना भी बड़ी संजीदगी और दृढ़ता के साथ करना षुरू किया।
सर्वप्रथम भू-खण्ड की चहारदीवारी की नींव दे डाली मगर विरोध की आंधी बढ़ती गयी और फाटक लगते ही पथराव षुरू हो गया। बातें कोर्ट कचहरी तक गयी पर सभी विरोधियों को मुंह की खानी पड़ी। स्वामी जी ने खंडहरनुमा इमारत को हटा कर सतमंजिले अट्टालिकानुमा इमारत को हटा कर सतमंजिले मठ के रूप में कराया। उसी परिसर में गंगा-दर्शन एवं उसके बगल में साधना भवन का निर्माण करवाया गया जहां अखण्ड ज्योति जलती रहती है। छात्रावास, इमारत खण्डों, सन्यासी भवनों आदि का निर्माण करवाया गया। अनेक भाषाओं के दर्जनों ग्रन्थ यहां उपलब्ध हैं। योग अनुसंधान के लिए पर्याप्त सामग्रियां हैं और इस आधार पर शोध अनुसंधान के कार्य लगातार चलते रहते हैं। पीएचडी, डीलिट् आदि के शोधार्थी निचले तल पर ही जमे रहते हैं, क्योंकि षोध अनुसंधान के लिए षांत-एकांत स्थान और वातावरण का होना निहायत जरूरी है। छठी मंजिल पर योगाश्रम के प्रधान, योग विश्वविद्यालय, ‘बिहार योग भारती’ के कुलाधिपति परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का निवास स्थान है। सातवें मंजिल पर इस शिवानंद मठ के अधिवक्ता और युगपुरूष स्वामी सत्यानंद सरस्वती को स्थापित कर रखा गया है।
भवन की दूसरी ओर तीसरी मंजिल पर विशाल सभागार भी निर्मित है। यहां दीक्षांत समारोह एवं अन्य बड़ी सत्संग सभाओं के आयोजन किये जाते हैं। भारत के राश्ट्रपति महामहिम डा.एपीजे अब्दुल कलाम के सम्मान में दूसरी मंजिल पर ही वृहत आयोजन किये गए थे। आश्रम के मुख्य भवन के पूरब की तरफ स्वामी जी की पूजा स्थली है।उत्तर दिशा में विदेषी छात्रावास है तो पष्चिम में अतिथिशाला, रसोईघर-भोजनालय भवन निर्मित है। पश्चिमी दिशा में मुख्य भवन और रसोई घर के बीच एक मंजिल भवन निर्मित है, जिसमें उपरी मंजिल पर अम्मा जी का निवास और छात्रावास है। भवन के निचले तल पर भी छात्रावास ही है। छात्रावास भवनों का निर्माण भी व्यवस्थित ढंग से किया गया है। इस छात्रावास में केवल विदेषी छात्र रहते हैं तो दूसरे खंड में विदशी साधक सन्यासियों के रहने का स्थान है। इसी तरह किसी छात्रावास में भारतीय छात्र-छात्राएं रहते हैं तो किसी खंड में भारतीय साधु सन्यासी रहते है। छात्रावासों की व्यवस्था ऐसी है कि छात्र-छात्राओं और साधु सन्यासियों के बीच कोई अंतर नहीं रहता। सन्यासी और छात्र भी स्नेहिल वातावरण में काम करते हैं और पूर्णतः अनुषासित होकर। अनुषासन इस आश्रम की खास विषेशता है। सैकड़ों की संख्या में कुछ न कुछ काम करते हैं, किंतु अखंड शांत वातावरण में। यहां का वातावरण भारतीय यौगिक संस्कृति के अनुरूप इतना गरिमापूर्ण बना दिखता है कि विदेषी छात्र और साधक भी एक नयी प्रेरणा लेकर उस वातावरण में रम जाते हैं।
आश्रम का दक्षिणी गेट मुख्य द्वार है, जहां भीतर प्रवेष करने के लिए स्वामियों की अनुमति की अनवार्य आवष्यकता होती है। इस आश्रम के चतुर्दिक नैसर्गिक प्राकृतिक प्रवेष हर किसी का मन मोह लेता है। मुख्य द्वार से सटे बंदूक कारखाना है, जहां खुफिया विभाग की देखरेख में बंदूकों का निर्माण होता है। उसी से सटे कर्णचौरा विद्युत ग्रीड है। पार्श्ववर्ती खाई और तालाब का सौंदर्य सैलानियों को मुग्ध कर देता है। योगाश्रम से पष्चिम किले का उŸारी द्वार है, जहां अंग्रेजों के साथ मीरकासिम का युद्ध हुआ था। इस द्वार से सटे जयप्रकाष उद्यान और इस्ट इंडिया के नाम पर कंपनी-गार्डेन, उससे सटे मुंगेर का सुंदर सर्किट हाउस। तात्पर्य यह कि मुंगेर का यह योगाश्रम चतुर्दिक प्राकृतिक सुषमा से आवृŸा सैलानियों के आर्कषण का एक केंद्र बन गया है। शिवानंद मठ के इस भवन की उपरी मंजिल पर से देखने पर मुंगेर शहर का प्राकृतिक सौंदर्य देख कर मुग्ध रह जाना पड़ता है। एक तरफ विंध्य पर्वत की श्रृंखला और दूसरी तरफ मां भागिरथी की अविरल कलकल-छलछल बहती धारा। स्वामी सत्यानंद जी ने इस पहाड़ी टीले, जिस पर योगाश्रम अवस्थित है, यहां से गंगा के सौंदर्य को देख कर ही ‘कुटीर’ का नाम गंगा दर्शन रखा था। स्पष्ट है कि इस योगाश्रम का जितना महत्वपूर्ण इतिहास है उतना ही उसका भूगोल भी।
20वीं सदी में एक बार फिर भारत में योग क्रांति का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त है। इसका आध्यात्मिक प्रकाश आज भारत सहित विश्व के 40 से अधिक देशों में फैल रहा है।
यहां एक महीने के प्रमाण पत्र से लेकर डॉक्टरेट तक के योग पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं।
साधकों व श्रद्धालुओं के लिए सख्त नियम
आश्रम में आने वाले साधकों व श्रद्धालुओं को यहां के सख्त नियमों का पालन करना पड़ता है। आश्रम में प्रतिदिन प्रात: चार बजे उठकर व्यक्तिगत साधना करनी पड़ती है। इसके बाद निर्धारित रूटीन के अनुसार कक्षाएं आरंभ होती हैं। सायं 6.30 में कीर्तन के बाद 7.30 बजे अपने कमरे में व्यक्तिगत साधना का समय निर्धारित है। रात्रि आठ बजे आवासीय परिसर बंद हो जाता है।
यहां खास-खास दिन महामृत्युंजय मंत्र, शिव महिमा स्तोत्र, सौंदर्य लहरी, सुंदरकांड व हनुमान चालीसा का पाठ करने का नियम है। वसंत पंचमी के दिन हर साल आश्रम का स्थापना दिवस मनाया जाता है। इसके अलावा गुरु पूर्णिमा, नवरात्र, शिव जन्मोत्सव व स्वामी सत्यानंद संन्यास दिवस पर भी विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
फ्रांस की शिक्षा पद्धति में शामिल है सत्यानंद योग
आज इस विशिष्ट योग शिक्षा केंद्र से प्रशिक्षित करीब 15 से 20 हजार शिष्य व करीब 13 से 15 सौ योग शिक्षक देश-विदेश में योग ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं।
यही नहीं आज फ्रांस की शिक्षा पद्धति में भी मुंगेर योग संस्थान के संस्थापक सत्यानंद के योग की पढ़ाई हो रही है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने योग रिसर्च सेंटर की स्थापना कर जिसकी अनुशंसा की थी और योग को आम लोगों तक पहुंचा कर विश्व में योग क्रांति का जो सूत्रपात किया था उसी का परिणाम है कि आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग स्थापित हुआ है।
विश्व योग सम्मेलन का आयोजन
स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1973 में मुंगेर में प्रथम विश्व योग सम्मेलन के माध्यम से देश व दुनिया का ध्यान योग की ओर केंद्रित किया था। 20 वर्षों बाद फिर 1993 में बिहार योग विद्यालय की स्वर्ण जयंती के अवसर पर द्वितीय विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया गया। पुनः स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने 2013 में मुंगेर में विश्व योग सम्मेलन के माध्यम से दुनिया में योग को स्थापित किया। आज भी यह परंपरा निर्बाध गति से चल रही है। देश- विदेश से लोग यहां योग की शिक्षा लेने आ रहे हैं।
3. घोरघट गांव, मुंगेर
बापू के साथ मरते दम तक थी मिथिला नगरी मुंगेर में बनी गोरघट की लाठी:-
(मिथिला नगरी मुंगेर गांव में लाठी भेंट करते हुए ग्रामीण(लाल घेरे में बापू))
मिथिला नगरी मुंगेर जिले के गंगा तट पर बसे घोरघट गांव में 12 अक्टूबर 1934 को महात्मा गांधी के कदम पड़े थे। इस गांव में उन्हें लाठी प्रदान की गई थी। जो आजीवन उनके संग रही। स्वतंत्रता सेनानी बोढ़न पासवान उस टीम के हिस्सा रहे जिन्होंने गांधी जी का स्वागत घोरघट में किया और उन्हें लाठी प्रदान की थी।
इस गांव में बापू की याद में हर वर्ष लाठी महोत्सव का आयोजन होता है। आयोजन का समन्वय गांव के बासुकी पासवान करते हैं।
इस गांव में पहुंचे बापू ने कहा था कि घोर यानी पवित्र और घट यानि आत्मा। अर्थात यहां पवित्र आत्मा वाले लोग निवास करते हैं।
घोरघट के पास स्थित ढोल पहाड़ी स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ थी। आजादी के दीवानों का यह एक गोपनीय केंद्र था। उन दिनों स्वतंत्रता सेनानियों का जमघट घोरघट में लगा करता था। वैसे घोरघट गरम दल के नेता”ं की धुरी रहा है, पर बापू तब इस गांव में आए थे। घोरघट के कठईटोला में विशेष किस्म की लाठी बनाई जाती थी। स्थानीय हवेली खड़गपुर के जंगलों से लाठी आती थी।
इस गांव के मो. आलम और मो. कयूम नें गांधीजी को प्रदान करने वाली लाठी का निर्माण किया। घोरघट में लाठी खास तकनीक से तेल और चूने में डालकर आग में सेंकी जाती थी। लाठी का इस्तेमाल मजबूती और खास गुणवत्ता के कारण मुगल काल में युद्ध में होता था। अंग्रेजों के जमाने में इसे पुलिस बल इस्तेमाल करते थे। इसे बिहार सरकार के पुलिस फोर्स में भी इस्तेमाल किया जाता रहा। बहरहाल उन दिनों यहां की लाठी ब्रिटेन, अफगानिस्तान, भूटान और नेपाल जाती थी। घोरघट आकर बापू का उद्देश्य साफ था वे स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों से मिलना चाहते थे। साथ ही चाहते थे कि घोरघट गांव में लाठी से जुड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था से वे सीधे रू-ब -रू हों।
बापू ने घोरघटवासियों से कहा था- ‘प्यारे गांववासियों मुझे पता है कि इस गांव की लाठी पूरी दुनिया में चर्चित है लेकिन जानकर दुख हुआ कि आपके गांव की बनी लाठी को ब्रिटिश हुकूमत खरीदती है और निरीह देशवासियों पर ही बरसाती है। आज से शपथ लें कि घोरघट की लाठी आप किसी भी ब्रिटिश के हवाले नहीं करेंगे। आपकी लाठी अंग्रेजों को भगाने का काम करे। मैं तो चाहता हूं आपकी लाठी मेरे बुढ़ापे का सहारा बने और देश की सुरक्षा करे।’ तब लोगों ने अंग्रेजी सरकार को घोरघट की लाठी देने से मना कर दिया था।
तकरीबन 4 घंटे महात्मा गांधी इस गांव में ठहरे। कौन जानता था कि वह पल चुपके-चुपके मिथिला नगरी मुंगेर जिले के लिए एक कभी नहीं भूलने वाला इतिहास को रच रहा था।
4. माँ चण्डिका स्थान, मुंगेर
मिथिला के,जाग्रत शक्ति पीठ – माँ चण्डिका स्थान, मुंगेर
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धर्म के आसमान पर , मुंगेर एक चमकता सितारा है। माँ चंडी स्थान, 64 शक्ति पीठों में से एक पीठ है जो गंगा नदी के तट पर एक गुफा में विंध्य पर्वत के बीच में, शहर के पूर्वोत्तर क्षेत्र में, स्थित है। मुंगेर के पूर्वोत्तर कोने पर, माँ चंडी स्थान, मुंगेर शहर से सिर्फ एक किलो मीटर दूर है। सिद्ध पीठ होने के नाते यह सबसे पवित्र मंदिरों में माना जाता है जहाँ आज भी प्रति वर्ष हजारों साधक अपनी साधना कर सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं और देश तथा विदेश के कोने-कोने से आए माँ के लाखों भक्तों की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।
पौराणिक कहानियों के अनुसार एक वार भगवान शिव की अर्द्धांगनी जगत जननी माता सती अपने अहंकारी पिता के मुख से भगवान शिव की निन्दा सुनकर अत्यन्त दुखी हुईं और योग बल से अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। भगवान शिव को जब यह पता चला तो वे अत्यधिक क्रोधित हुए और सती की लाश को अपने कंधे पर रख कर भयंकर ताण्डव ऩृत्य करना शुरू किया। इससे सारी सृष्टि में भंयकर प्रलय मच गया। सृष्टि को इस भयंकर विनाश से बचाने के लिए ब्रह्मा जी के साथ सभी देवगण सृष्टि के पालक भगवान विष्णुजी के पास जाकर प्रार्थना किया।भगवान विष्णु ने भगवान शिव के क्रोध को शान्त करने और उनके मन से सती की लाश के प्रति मोह भंग करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र द्वारा लाश के अंगों को काटने लगे। इससे माँ सती की लाश के अंग जहाँ–जहाँ पृथ्वी पर गिरे, वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ का निर्माण हुआ। इस प्रकार 64 शक्ति पीठों का निर्माण हुआ। मुंगेर में माँ सती की बायीं आँख गिरी थी जिसका चिन्ह आज भी वर्त्तमान है।
यद्यपि शिव यानी व्रह्माण्ड की परम चेतना और शक्ति अर्थात् महामाया प्रकृति दोनों अभिन्न और एक हैं, फिर भी जगत कल्याणके लिए उनकी यह करुणामयी लीला है।y
यह भी कहा जाता है कि चंडिका स्थान का इतिहास महाभारत काल के राजा कर्ण से संबंधित है। राजा कर्ण मां का परम भक्त थे। वे नित्य दिन के प्रथम पहर में इसी स्थान पर आकर माता का पूजन करते और उबलते घी की कराही में कूदकर अपने जीवन को माँ के प्रति समर्पित कर देते। माँ राजा कर्ण पर प्रसन्न होकर प्रगट होती और उसे पुनरजीवन प्रदान कर वर स्वरूप 1.75 मन सोना देती। राजा कर्ण इसी सोने को “कर्णचौरा” पर जहाँ आज परम पूज्य स्वामी सत्यानन्द सरस्वस्ती द्वारा स्थापित विश्व प्रसिद्ध योगाश्रम “गंगादर्शन” स्थित है,से नित्य याचकों को दान दिया करते थे। राजा कर्ण की दान प्रियता की ख्याति समस्त संसार में प्रसिद्ध थी।
एक वार कर्ण के दान का रहस्य जानने के लिए बिक्रमादित्य नाम का एक राजा अपना वेश बदल कर यहाँ कर्ण के आने के पूर्व ही आया और छिप कर बैठ गया। और सारे रहस्य का पता लगाने के बाद वह स्वयं दूसरे दिन अर्द्ध रात्रि में कर्ण के आने के पूर्व यहाँ आकर उसी प्रकार देवी की कठोर साधना की। जब देवी प्रगट हुयी तो उसने वर स्वरूप पारस पत्थर प्राप्त किया जिसके स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है।
और देवी से कहा कि मैं इसे कर्ण को दूँगा जिससे उसे नित्य कठोर साधना नहीं करना पङे। तत् पश्चात देवी अंर्तध्यान हो गई और बह घी का खौलता कराह सदा के लिए उलट गया। इसी रहस्यमयी कराह के नीचे आज भी माँ चण्डिका की आँख का चिन्ह विराजमान है।
5. मुंगेर किला
अंग जनपद की ऐतिहासिक धरोहर मुंगेर किला अनेक उत्थान-पतन का साक्षी है. यह किला आज सरकारी उपेक्षा के कारण ढहने के कगार पर है. जिस किले पर कभी नौबत बजती थी, वहीं अब सन्नाटा पसरा है. इसकी दीवारें ढहनी शुरू हो गई हैं, लेकिन इसकी फिक्र न तो पुरातत्व विभाग को है और न ही राज्य सरकार को. ग़ौरतलब है कि वर्ष 1934 में आए भूकंप में मीर कासिम का किला ढह गया था, लेकिन उस समय के लोग अपने इतिहास को बचाने के प्रति इतने जागरूक थे कि चंदा इकट्ठा कर जैसे हो सका, वैसा ही किला बना दिया. हालांकि नया किला पुराने किले जैसा भव्य नहीं बन पाया, लेकिन यह मुंगेर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है.
अ़फसोस यह है कि इसे बचाने की दिशा में कोई पहल नहीं की जाती. यदि यही आलम रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब मुंगेर के इतिहास की मूक साक्षी इस ऐतिहासिक धरोहर का वजूद ही मिट जाएगा. किले के कण-कण में शौर्य, त्याग और बलिदान की दास्तान द़फन है. आज़ादी के छह दशक बाद भी इसकी सुरक्षा, रखरखाव और आसपास के क्षेत्र का सौंदर्यीकरण नहीं किया गया. सच तो यह है कि इसे सजाने-संवारने में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका राजा-महाराजाओं की रही, उसके ठीक विपरीत रहा सरकार का रवैया. लिहाज़ा आज यह किला रंग-रोगन तक के लिए तरस रहा है. इसकी दीवारें कई जगहों से क्षतिग्रस्त होकर ढह रही हैं. किले का इतिहास तक़रीबन बारह-तेरह सौ वर्ष पुराना है. अ़फसोसजनक पहलू तो यह है कि इसे आज तक राष्ट्रीय स्मारक घोषित नहीं किया गया.
यह किला न केवल मुंगेर, बल्कि बिहार की एक धरोहर है. विश्व प्रसिद्ध मुंगेर शहर में क़दम रखते ही सर्वप्रथम लोगों की नज़र लाल रंग से रंगी चाहरदीवारी पर प़डती है. गंगा तट पर स्थित सामरिक दृष्टिकोण से बना यह किला अनेक बादशाहों, शासकों और साम्राज्यों के उत्थान-पतन का गवाह है. यह किला मीर कासिम के किले के नाम से जाना जाता है. इसका निर्माण किसने और कब कराया, यह खोज का विषय है. लेकिन, समय-समय पर जिन राजाओं ने किले की मरम्मत कराई, उनके नाम इतिहास के पन्नों में अंकित होते गए. वैसे इतिहासकार इस किले को महाभारतकालीन जरासंध से जो़डते हैं. कहा जाता है कि जरासंध ने अपने साम्राज्य के पूर्वी सीमांतर स्थित मुंगेर में इस किले का निर्माण कराया था. जरासंध ने यह किला राजा कर्ण को उपहार में दिया था, जिसका जिक्र महाभारत के सभा पर्व के दिग्विजय प्रकरण में है. इसमें मुंगेर के किले की चर्चा की गई है. इससे जाहिर होता है कि मुंगेर के इस किले का निर्माण उस समय हो चुका होगा, क्योंकि लोग किले को सिद्ध शक्तिपीठ चंडी स्थान से भी जो़डते हैं. यह किला कर्ण की दानवीरता का भी साक्षी है. किंवदंती है कि कर्ण सिद्ध शक्तिपीठ चंडी स्थान में पूजा-अर्चना कर किले के अंदर स्थित ऊंचे टीले से नित्य सवा मन सोना दान करते थे. इस टीले को लोग आज भी कर्णचौड़ा कहते हैं, जहां अब विश्व का प्रथम योग विश्वविद्यालय है. महाभारत के इस नायक कर्ण को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने रश्मिरथी के माध्यम से अमरता प्रदान की. महाभारत काल के दो हज़ार वर्षां में इस किले की चर्चा इसलिए नहीं मिलती है, क्योंकि नंदवंश, शिशुनाग वंश और मौर्य वंश के मगध राजाओं के काल में इस किले का नाम कई बार बदला गया. कालांतर में सम्राट कनिष्क से हर्षवर्द्धन के शासनकाल तक मुंगेर के किले पर कुषाण साम्राज्य और इसके बाद ढाई सौ वर्षां तक पालवंशीय राजाओं का क़ब्ज़ा था. कुतुब खां से शेरशाह तक और शेरशाह से अकबर तक के शासकों ने इस किले का उपयोग जंगी छावनी के रूप में किया. वर्ष 1657 में जब शाहजहां की बीमारी के कारण गद्दी के लिए उसके पुत्रों के बीच जंग हुई तो उस समय भी मुंगेर का नाम उभर कर सामने आया. शाहजहां का दूसरा पुत्र शाहसुजा बंगाल का शासक था, उसकी राजधानी राजमहल में थी. पिता की मौत की खबर के बाद उसने दिल्ली की गद्दी हासिल करने के लिए बगावत कर दी, लेकिन तब तक औरंगजेब दिल्ली की गद्दी पर क़ाबिज़ हो चुका था. औरंगजेब से ल़डने के लिए उसने मुंगेर में तैयारी शुरू कर दी और सामरिक दृष्टिकोण से इसे इस कदर मज़बूत किया कि दुश्मन इसके अंदर प्रवेश न कर सके. इसके अंतर्गत तीन ओर से खाई खुदवाई गई और घेरा कराया गया. बावजूद इसके उसे अपने मक़सद में कामयाबी हासिल नहीं हुई और मुंगेर के किले पर औरंगजेब का क़ब्ज़ा हो गया. मुगल शासक के पतन के बाद मुंगेर के किले पर बंगाल के नवाबों का अधिकार हो गया. ध्वंस के कगार पर पहुंचा यह किला तब आभामंडित हो गया, जब 1761 में बंगाल और बिहार के नवाब मीर कासिम ने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाया. उसने इस किले की मरम्मत कराई और अपने सेनापति गुर्गिन खां को सैन्य शक्ति के पुनर्गठन का निर्देश दिया. किले के अंदर आग्नेयास्त्र निर्माण के लिए कारखाने खोले गए, जिसकी परंपरा आज भी इस ज़िले में है. कुछ ही समय बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी ज़डें जमाने की कोशिश की तो मीर कासिम ने इसकी मुखाल़फत की. परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों से ल़डाई छ़िड गई और विदेशी बादशाहत को रोकने में उसकी अहम भूमिका रही. मीर कासिम के चले जाने पर अंगे्रजी सेना मुंगेर आने लगी और अंतत: मुंगेर किले पर अंग्रेजों का क़ब्ज़ा हो गया.
मुंगेर का किला मीर कासिम के दो मासूम बच्चों की शहादत का भी गवाह है, जिन्होंने अंग्रेजों से ल़डते हुए अपनी जान दे दी. यह देश का पहला किला है, जिसके अंदर आबादी बसती है. किले के अंदर सरकारी विभागों के कार्यालय, सिविल कोर्ट के साथ-साथ विश्व प्रसिद्ध योग विश्वविद्यालय है. यह किला समृद्ध अतीत का साक्षी है, लेकिन वर्तमान में सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रहा ह|
6. Manpathar (Sita Charan),Munger
मानपत्थर अपनी तरह का एक स्थान है जो कष्टहरणी घाट के पास स्थित है। इस चट्टान पर दो पैरों के चिह्न मिलते हैं जो माना जाता है कि सीता माँ के हैं जिन्होनें गंगा नदी पार करते समय चट्टान को स्पर्श किया था। इस चट्टान की लंबाई 250 मीटर और चौडाई 30 मीटर है। यहाँ एक छोटा मंदिर स्थित है तथा यह स्थान सनातन आस्था का प्रतीक है।
7. कष्टहरणी घाट, मुंगेर
कष्टहरणी घाट का उल्लेख वाल्मीकि की रामायण में मिलता है जिसके अनुसार राक्षसी तारका को मारने के बाद भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ कुछ समय के लिए यहाँ रुके थे। ऐसा भी कहा जाता है कि जब भगवान राम सीता के साथ विवाह करके मिथिला से अयोध्या वापस लौट रहे थे तब उनके बहुत से साथी इस कष्टहरणी घाट पर स्नान करने के लिए रुके थे।
एक प्रसिद्ध विश्वास के अनुसार इस घाट में स्नान करने से सारे दर्द दूर हो जाते हैं तथा आपके मस्तिष्क, शरीर और आत्मा को शांति मिलती है। हालाँकि इस स्थान को धार्मिक महत्व प्राप्त नहीं हुआ है परंतु अपनी शाम बिताने के लिए यह एक अच्छा स्थान है तथा अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है।
क्योंकि घाट का पानी उत्तर की ओर बहता है अत: इसे उत्तर वाहिनी गंगा भी कहा जाता है।
8. कर्णपुर की पहाड़ी, मुंगेर
मुंगेर कई पहाड़ियों से धिरा हुआ नगर है। कर्णपुर की पहाड़ी महाभारत के कर्ण से सम्बन्धित बताई जाती है। महाभारत के उपर्युक्त प्रसंग में भी कर्ण और भीम का युद्ध मुंगेर के उल्लेख से ठीक पूर्व वर्णित है।
स्थापना
भारत के प्राचीन अंग साम्राज्य बिहार का प्रमुख केन्द्र मुंगेर शहर एवं ज़िला है। मुंगेर ज़िले का प्रशासनिक मुख्यालय, बिहार राज्य, पूर्वोत्तर भारत, गंगा नदी पर स्थित है। कहा जाता है कि मुंगेर की स्थापना गुप्त शासकों ने चौथी शताब्दी में की थी। यहाँ एक क़िला है, जिसमें मुस्लिम संत शाह मुश्क नफ़ा जिनकी मृत्यु 1497 में हुई थी, की मज़ार है। 1793 में बंगाल के नवाब मीर क़ासिम ने मुंगेर को अपनी राजधानी बना कर यहाँ शस्त्रागार और कई महलों का निर्माण करवाया। 1864 में यहाँ नगरपालिका का गठन हुआ।
इतिहास
महाभारत में मुंगेर शहर को ‘मोदागिरि’ कहा गया है-‘अथ मोदागिरौ चैव राजानं बलवत्तरम् पांडवो बाहुवीर्येण निजधान महामृघे’ अर्थात् पूर्व दिशा की दिग्विजय यात्रा में
मगध पहुँचने के उपरान्त मोदागिरि के अत्यन्त बलवान नरेश को भुजाबल से युद्ध में मार गिराया। इसका वर्णन गिरिव्रज (राजगीर) के पश्चात् है तथा इसके उल्लेख के पहले भीम की
कर्ण पर विजय का वर्णन है। किंवदन्ती के अनुसार मुंगेर की नींव डालने वाला चंद्र नामक राजा था। नगर के निकट सीताकुण्ड नामक स्थान है। जहाँ कहा जाता है कि
सीता अपने दूसरे वनवास काल में अग्नि प्रवेश के लिए उतरी थी। चंडी स्थान भी प्राचीन स्थल है। एक किंवदन्ती में मुंगेर का वास्तविक नाम मुनिगृह भी बताया जाता है। कहते हैं कि यहीं पहाड़ी पर मुदगल मुनि का निवास स्थान होने से ही यह स्थान मुदगल नगरी कहलाता था। किन्तु इसका सम्बन्ध महाभारत के मोदागिरि से जोड़ना अधिक समीचीन है।
कनिंघम के मत में 7वीं शती में युवानच्वांग ने इस स्थान को लोहानिनिला (लावणनील) कहा है। 10वीं शती में पाल वंशी देवपाल का यहाँ पर राज था, जैसा कि उसके ताभ्राट्ट लेख में वर्णित है। मुंगेर में मुस्लिम बादशाहों ने भी काफ़ी समय तक अपना मुख्य प्रशासन केन्द्र बनाया था, जिसके फलस्वरूप यहाँ पर उस समय के कई अवशेष हैं। मुग़लों के समय का एक ज़िला भी उल्लेखनीय है। यह गंगा के तट पर बना है। इसके उत्तर पश्चिम के कोने में कष्टतारिणी नामक गंगा घाट है। जहाँ 10वीं शती का एक अभिलेख है। क़िले से आधा मील पर ‘मान पत्थर’ है, जो गंगा के अन्दर एक चट्टान है। कहा जाता है कि इस पर श्रीकृष्ण के पदचिह्न बने हैं। क़िले के पश्चिम की ओर मुल्ला सईद का मक़बरा है। ये अशरफ़ नाम से फ़ारसी में कविता लिखते थे और औरंगज़ेब की पुत्री जेबुन्निसा के काव्य गुरु भी थे। इनका मूल निवास स्थान
कैस्पियन सागर के पास मजनदारन नामक स्थान था। अकबर के समय में टोडरमल ने बंगाल के विद्रोहियों को दबाने के लिए अभियान का मुख्य केन्द्र मुंगेर में बनाया था। शाहजहाँ के पुत्र शाहशुजा ने उत्तराधिकार युद्ध के समय इस स्थान में दो बार शरण ली थी। कुछ विद्वानों का मत है कि मुंगेर का एक नाम ‘ हिरण्यपर्वत’ भी है, जो सातवीं शती या उसके निकटवर्ती काल में प्रचलित था।
यातायात और परिवहन
जमालपुर तथा सिमलतला महत्त्वपूर्ण रेल और वाणिज्यिक केंन्द्र हैं।
कृषि और खनिज
चावल, मक्का, गेंहू, चना और तिलहन यहाँ की मुख्य फ़सलें हैं।
उद्योग व व्यवसाय
प्रमुख रेल, सड़क और स्टीमर संपर्क से जुड़ा यह स्थान एक महत्त्वपूर्ण अनाज मड़ी है। यहाँ उद्योगों में आग्नेययास्त्र व तलवार निर्माण और आबनूस का काम शामिल है। इस शहर में
भारत के विशालतम सिगरेट कारख़ानों में से एक स्थित है। यहाँ अभरक, स्लेट और चूना पत्थर का खनन होता है।
शिक्षण संस्थान
यहाँ पर प्रसिद्ध योग विश्वविद्यालय है।
Er Shailesh jha
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