टेमी उसकबैत रहब जरूरी छै
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से ई कोरोना-प्रसंग मे राज्य सरकारक अगंभीरता देखै छिऐ तँ पहिने दुख होइए । फेर ओ दुख तामस मे बदलि जाइए । फेर ओ तामस बहुतो दिन धरि हमर अंदर रहि हमरे जरब’ लगैए । हम ओहि मे जर’ लगैत छी, जरैत रहै छी धहधह…
कि एकदिन ताही जरल स्थिति मे अपन पुरखा सभ पर तामस उठि जाइए । ओह, कतेक अदूरदर्शी, कतेक स्वार्थी आ निज परिचिति रक्षाक लेल कतेक अधिक उदासीन रहथि हमर पुरखा । जँ ओ सभ एतनीयों टा साकांक्ष आ गंभीर इच्छा संग एकजुट भ’ अड़ल रहितथि, आजुक हमर ई पीड़ा उभरि नहि पबितय ।
से एखन बजबो करब तँ के कान देत ! मगध आइ किएक सुनत मिथिला ! दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, आकि राजस्थानक कोटा मे बरु मरि-हरि जाउ मैथिलजन, हम बिकाइल लोक पुनः बिका जायब । हमर दाम बुझल छै सभ कें । ओ दाम, जाति अछि, ओ दाम उखारल जातीय भाव अछि, ओ दाम अंततः ‘कैश’ अछि ! ओकरा सभ बूझल छै । हम खण्ड-खण्ड बँटल छी, ओकरा सभ बूझल छै । हम नेतृत्वहीन छी । हमरा लग नेता नहि अछि, ओकरा सभ बूझल छै । जहिया कहियो रहबो करै, ओकरा कुर्सी पर बैसिते आँखि मे अखंड बिहारक नक्शा सटि गेल रहै, ओकरा सभ बूझल छै । ई सभ आन्हर कूकुर अछि, एक अढ़िया माँड़े पर तिरपित होब’वला अछि, ओकरा सभ बूझल छै । आब अहीं कहू जे ओ तखन किएक अपन कान-बात देत !
ओह, आब अपने कान धीपि गेलय । तन धहधह क’ रहल अछि । ककरा कहियौ, ककरा संग गंभीर होउ, ककरा संग बतिआउ, ककरा ऊपर गुमान करू ! कतेक रास तँ संस्था अछि, अखिल भारतीय, अंतर्राष्ट्रीय । मुदा न:, सभक सभ खाली लिफाफा । मजमून साफ, एजेंडा हवा-हवाई । एकसदस्यीय संस्था, आ स्वार्थपूर्ति होब’ धरि एकमेव । कतेक तँ आजन्म बकांड-प्रत्याशी ! से कही, सभ नेतघट, सभ बनियाँ । पाग आ दोपटा लेने जीवन-यापन कयनिहार ।
तखन ककरा कहियौ, ककरा पर एहि लेल विश्वास करू, जे फराक मिथिला राज्य लेल ‘सीरियसनेश’ के देखाओत ! अनेक-अनेक पीढ़ी आयल, आ चल गेल । नारा लगैत रहल, जुलूस बहराइत रहल, लाउडस्पीकर बजैत रहल । मुदा आवाज कहाँ सुनल गेल ! हमरे सभ द्वारा हमर आवाज कहाँ सुनल गेल ! आब तँ ओहो उद्वेग अलोपित ।
अछैत एहि विपरीतक बीच, एहि कोरोना-काल मे अपन अपरिचितिक कचोट अखरैए । आइ हमरो जँ परिचिति रहितय तँ हमहूँ पंजाब होइतहुँ, बंगाल कि असम होइतहुँ, उत्कल ओ उत्तर प्रदेश होइतहुँ । मुदा हम तँ बहुत किछु होइतहुँ किछु नहि भ’ सकलहुँ ।
हमरा कोटाक करुण क्रंदन, हमरा दिल्लीक दिल्लगी, हमरा सूरतक वणिक सूरत, सभ संगहि ललकारि रहलए । हँ हँ, हमरा हमर नपुंसकता दुत्कारि रहलए । हम घिना रहल छी । हम आब आर नहि घिनाय चाहैत छी । हम अपन माँग कह’ चाहैत ककरो लग, राख’ चाहै छी ककरो लग अपन मनोरथ । मुदा नहि भेटैए क्यो, नहि अभरैए क्यो । आइ वीरविहीन लगैए जप-तप सँ जलक तीर लगक उगाओल भूमि– तीरभुक्ति !
हम तैयो बाजब । हम बरू अछाहे भूकब । हम पीड़ित छी । हम युग-युग सँ पीड़ित छी । कोरोना-आतंक एत’-ओत’, सभतरि पसरल अछि । आ हमसभ तदपि पसरल छी अपन अकर्मण्यता पछुआर ! कतेक मुइल, कतेक संक्रमित, कतेक आसन्न, सकल मन एही पाछू बेहाल ।
मुदा हम ? हम तथापि एक गंभीर प्रश्न फेकैत छी, अगंभीरक दुआर । जेना, हाँसुक बियाहमे खुरपीक गीत गबैत सन– ‘अँय यो प्रवीण, आब मिथिला राज्य कहिया लेबै !’
नपुंसक सेना बैसल ठाम जागल अछि । पक्ष-विपक्ष मे शब्द ओ तर्क युद्ध चलि रहल अछि । जनैत छी, ई शब्द-युद्ध सोडावाटरीय युद्ध अछि । तथापि एक-ने-एक कें तँ टेमी उसकबैत रहब जरूरी छै ! हम सएह ज’न छी अपन भूमिक !… ●
वरिष्ठ साहित्यकार विभूति आनंद जी के फेसबुक वाल सँ साभार