मैथिली साहित्य
मैथिली मुख्यतः नेपाल के तराई क्षेत्र एवंम् उत्तर-पूर्व बिहार की भाषा है। भारत के दस जिलों में ( मधुबनी , दरभंगा , समस्तीपुर ,
मुजफ्फरपुर , मुंगेर , भागलपुर , सहरसा , पूर्णिया,
सीतामढ़ी और पटना) और नेपाल के सात जिलों में (धनुषा जिला , महोत्तरी जिला,
सिराहा जिला , सर्लाही जिला , सप्तरी जिला , सुनसरी जिला और मोरंग जिला) यह बोली जाती है। इसका क्षेत्र लगभग 30,000 वर्गमील में व्याप्त है। मैथिली भाषा का सांस्कृतिक केंद्र भारत में दरभंगा और नेपाल में
जनकपुर है ।
बांग्ला भाषा , असमिया और उड़िया के साथ-साथ इसकी उत्पत्ति मागधी प्राकृत से हुई है । [4] कुछ अंशों में ये बंगला और कुछ अंशों में
हिंदी से मिलती जुलती है।
मैथिली लिपि
मुख्य लेख : तिरहुता लिपि
अन्य स्वतंत्र साहित्यिक भाषाओं की तरह
मैथिली की अपनी प्राचीन लिपि है जिसे ” तिरहुता ” या मिथिलाक्षर कहते हैं। इसका विकास नवीं शताब्दी ईo में शुरू हो गया था। आजकल छपी हुई पुस्तकों में अधिकांश
देवनागरी का ही प्रयोग होने लगा है।
मैथिली साहित्य का काल विभाजन
मैथिली के साहित्य को तीन कालों में विभक्त किया जाता है –
आदिकाल (1000 ई. – 1600 ई.),
मध्यकाल (1600 ई. -1860 ई.) और
आधुनिक काल (1860 ई. से ……..)।
प्रथम काल में गीतिकाव्य , द्वितीय में नाटक और तृतीय में गद्य की प्रधानता रही है।
आदिकाल
मैथिली का सबसे प्राचीन साहित्य बौद्ध तांत्रिकों के अपभ्रंश दोहों और भाषा गीतों में पाया जाता है। इनकी भाषा मिथिला के पूर्वीय भाग की बोली का प्राचीन रूप है तथापि बँगला, उड़िया और असमिया भी अपना आदि-साहित्य इन्हीं को मानती हैं। इसके बाद इसवीं शताब्दी ईसवी के लगभग
मिथिला में कार्णाट राजाओं का उदय हुआ। उन्होंने मैथिल संगीत की परंपरा स्थापित की जिसके कारण काणाटिवंश के हरसिंह देव का काल स्वर्णयुग (लगभग 1324 ई0) कहलाया। उनके समकालीन ज्योतिरीश्वर ठाकुर का “वर्णन-रत्नाकर” नामक एक महान गद्यकाव्य मिलता है। इसमें विभिन्न विषयों पर कवियों के उपयोगार्थ उपमाओं और वर्णनों को सजाकर रखा गया है। (हाल ही में उन्हीं का “धूर्तसमागम” नामक नाटक और मैथिली गीत भी उपलब्ध हुए है।)
ज्यातिरीश्वर के उपरांत विद्यापति ठाकुर का युग आता है (1350-1450)। इस युग में
मिथिला में ओइनिवार वंश का राज्य था। बंगाल में जयदेव ने जिस कृष्ण प्रेम के संगीत की परंपरा चलाई, उसी में मैथिल कोकिल
विद्यापति ने हजारों पदों में अपना सुर मिलाया और उसी के साथ मैथिली
काव्यधारा की विशेषत: गीतिकाव्य की एक अनोधी परंपरा चल पड़ी जिसने तीन शताब्दियों तक पूर्वीय भारत में मैथिली का सिक्का जमा दिया।
विद्यापति की प्रसिद्धि बंगाल में, उड़ीसा में और असम में खूब हुई। इन देशों में विद्यापति को वैष्णव माना गया और उनके अनुकरण में अनेक कवियों ने मैथिली में पदावलियाँ रचीं। इस साहित्य की परंपरा आधुनिक काल तक चली आई है। 20वीं शताब्दी में विश्वकवि रवींद्र ने “भानुसिंहेर पदावली” के नाम से कई सुंदर ब्रजबुलीद पद लिखे।
विद्यापति की परंपरा मिथिला में भी चली। न केवल इनके राधाकृष्ण संबंधी
श्रृंगारिक गीत, किंतु शक्ति और शिव विषयक कविताओं का भी (जिनहें क्रमश: गोसाउनिक गीत और नचारी कहते हैं) लोग अभ्यास करने लगे। विद्यापति के समकालीन कवियों में अमृतकर, चंद्रकला, भानु, दशावधान, विष्णुपुरी, कवि शेखर यशोधर, चतुर्भुज और भीषम कवि उल्लेखनीय हैं। विद्यापति के परवर्ती कवियों में, महाराज कंसनारायण (लगभग 1527 ई0) के दरबार में रहनेवाले कवियों का नाम लिया जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध लोकप्रिय कवि गोविंद हुए। ये गोविंददास से भिन्न थे और इनकी पदावली “कंसनारायण पदावली” में मिलती है। विद्यापति परंपरा के परकालीन कविर्यो में महिनाथ ठाकुर, लोचन झा, हर्षनाथ झा और चंदा झा के नाम गिनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त नेपाल में तीन कवि प्रसिद्ध हुए जिन्होंने विद्यापति के शिव और शक्ति विषयक पदों का विशेष अनुकरण किया। उनके नाम हैं सिंह नरसिंह, भूपतींद्र मल्ल और जगतप्रकाश मल्ल।
मध्य काल
मध्यकाल में मुसलमानों के आक्रमणों के कारण
मिथिला में कई वर्षो तक अराजकता रही।
ओइनिवार वंश के नष्ट होने के बाद मिथिला के विद्वान कवि और संगीतज्ञ अधिकतर
नेपाल के राजदरबारों में संरक्षण के लिये चले गए। वहाँ के मल्ल राजाओं की काव्य और नाटक का बड़ा शौक था। इसलिए मध्ययुगीन मैथिली साहित्य का एक बड़ा अंश नेपाल में ही लिखा गया।
नेपाल में रचित साहित्य में नाट्य साहित्य मुख्य था। पहले संस्कृत के नाटकों में मैथिली गानों का संनिवेश करना आरंभ हुआ। क्रमश: उनमें संस्कृत और प्राकृत का व्यवहार कम होने लगा और मैथिली में ही संपूर्ण नाटक लिखे जाने लगे। अंत में संस्कृत नाटक की भी रूपरेखा छोड़ दी गई और एक अभिनव गीतिनाट्य की परंपरा स्थापित हुई। इनमें संगीत की प्रधानता रहती थी। अधिकांश कथानक संकेत में ही व्यक्त होता था और गद्य का व्यवहार नहीं होता था। राजसभाओं में ही ये नाटक अभिनीत होते थे। रंगमंच खुला रहता था और अभिनय दिन में होता था। कथानक नवीन नहीं हुआ करते थे- बहुधा पुराने पौराणिक आख्यान या नाटक को ही फिर से गीतिनाट्य का रूप देकर अथवा केवल संशोधन करके ही उपस्थित कर देते थे।
नेपाली नाटककारों की कार्यभूमि मुख्यत: तीन स्थानों में रही- भक्तपुर , काठमांडू और
पाटन । भक्तपुर में सबसे अधिक नाटक लिखे गए और अभिनीत हुए। मुख्य नाटककार पाँच हुए-
जगज्योतिर्मल्ल , जगत्प्रकाश मल्ल, जितामित्र मल्ल, भूपतींद्र मल्ल और रणजित मल्ल। इनमें सबसे अधिक नाटक रणजित मल्ल ने लिखे। इनके बनाए 19 नाटकों का पता अब तक लगा है। काठमांडू में सबसे प्रसिद्ध नाटककार वंशमणि झा हुए। पाटन में सबसे बड़े कवि और नाटककार सिद्धनरसिंह मल्ल (1620-1657) हूए।
नेपाली नाटकों की परंपरा 1768 ईस्वी में नष्ट हो गई जब महाराज पृथ्वीनारायण शाह ने वहाँ के मल्ल राजाओं को हराकर गुरखों का राज्य स्थापित किया।
मध्यकाल-2 (1600-1660)
मैथिली नाटक (मिथिला में)- नेपाल के राजदरबारों के गीतिनाट्य परंपरा बन रही थी जिसको ‘कीर्तनिया नाटक’ कहते हैं।
कीर्तनिया नाटक का आरम्भ प्राय: शिव या
कृष्ण के चरित्र का कीर्तन करने से हुआ। परंतु वे धार्मिक नाटक नहीं होते थे। कीर्तनिया का अभिनय रात को होता था तथा इसका अपना विशेष संगीत हुआ करता था जिसे नादी कहते हैं।
कीर्तनिया नाटकों के आरंभ में भी केवल मैथिली गानों को संस्कृत नाटकों में रखा जाता था। ये गान संस्कृत श्लोंकों या वाक्यों का अर्थमात्र ललित भाषा में स्पष्ट करते थे। हाँ, कभी कभी स्वतंत्र गान का भी उपयोग होता था। क्रमश: लगभग संपूर्ण नाटक मैथिली गानमय होने लगा।
कीर्तनिया नाटककारों को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता हैं-1350-1700 तक, 1700-1900 तक और 1900-1950 तक।
पहले काल में विद्यापति का गोरक्षविजय, गोविंद कवि नलचरितनाट, रामदास का अनंदविजय, देवानन्द का उषाहरण, उमापति का पारिजातहरण और रमापति का रुकमणि परिणय गिने जा सकते हैं। इसमें सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्ध उमापति उपाध्याय (18वीं शताब्दी) हुए।
दूसरे काल के मुख्य नाटककार हैं- लाल कवि, नंदीपति, गाकुलानंद, जयानंद कान्हाराम, रत्नपाणि, भानुनाथ और हर्षनाथ। इनमें लाल कवि का गौरी स्वयंवर और हर्षनाथ का उषाहरण तथा माघवानंद अधिक प्रसिद्ध और साहित्यक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
तीसरे काल के लेखक विश्वनाथ झा, “बालाजी”, चंदा झा और राजपंडित बलदेव मिश्र हैं। इनके नाटकों में प्रचीन कवियों के गानों और पदों की ही पुनरुक्ति अधिक हैं, नाटकीय संघर्ष का नितांत अभाव है।
मध्यकाल-3 (1600-1690ई.)
मैथिली नाटक (असम में) सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में मैथिली नाटक का एक रूप असम में भी विकसति हुआ, सुखन जिसे अंकिया-नाट कहते हैं। यह उपर्युक्त दोनों नाटकों की परंपराओं से भिन्न प्रकार का हुआ। इसमें लगभग संपूर्ण नाटक गद्यमय ही होता था। सूत्रधार पूरे पूरे नाटक में अभिनय करता था। अभिनय से अधिक वर्णनचमत्कार या पाठ की ओर ध्यान था। इन नाटकों का उद्देश्य मनोविनोद मात्र नहीं था, वरन् वैष्णव धर्म का प्रचार करना था। अधिकतर ये नाटक
कृष्ण की वात्सल्यमय लीलाओं का वर्णन करते थे। इनमें एक ही अधिक अंकर नहीं होते थे।
अंकिया नाटककारों में शंकरदेव (1449-1558),
माधवदेव और गोपालदेव के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध शंकर देव हुए। इनका
रुक्मणीहरण नाटक असम में सबसे अधिक लोकप्रिय हैं।
मध्यकाल-4 (1600-1890)
गद्य साहित्य – इस काल के प्राचीन दानपत्र एवं पत्रों से मैथिली गद्य के स्वरूप का विकास जाना जा सकता है। इनसे उस समय के दास प्रथा संबंधी विषयों का पूर्ण ज्ञान होता हैं।
विद्यापति परंपरा के अतिरिक्त जो गीतिकाव्यकार हुए उनमें भज्जन कवि, लाल कवि, कर्ण श्याम प्रभृंति मुख्य हैं। पद्य का एक नया विकास लंबे काव्य, महाकाव्य, चरित और सम्मर के रूप में हुआ इनके लेखकों में कृष्णजन्म कर्ता मनवोध, नंदापति रतिपति और चक्रपाणि उल्लेखनीय हैं।
तीसरी धारा काव्यकर्ताओं की वह हुई जिसमें संतों ने (विशेषकर वैष्णव संतों ने) गीत लिखे। इनमें सबसे प्रसिद्ध साइब रामदास हुए। इनकी ‘पदावली’ का रचनाकाल 1746 ई. है।
आधुनिक काल
सन् 1860 ई में मिथिला में आधुनिक जीवन का सूत्रपात हुआ। सिपाही विद्रोह से जो अराजकता छा गई थी वह दूर हुई। पश्चिमी शिक्षा का प्रचार होने लगा, रेल और तार का व्यवहार आरंभ हुआ, स्वायत्त शासन की सुविधा हुई तथा मुद्रणालयों की स्थापना होने लगी। इसी समय कतिपय साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं की स्थापना हुई जो नव जाग्रति के कार्य को पूर्ण करने में संलग्न हुई। फलस्वरूप लोगों की अभिरुचि प्राचीन साहित्य के अन्वेषण और अध्ययन की और गई और नवीन युग के अनुरूप साहित्य की नींव पड़ी।
नवयुग के निर्माण में कवीश्वर चंदा झा (मृत्यु 1907 ई।) का नाम सबसे महत्वपर्ण है। इनके महाकाव्य ” रामायण ” की रचना से मैथिली भाषा का गौरव ऊँचा हुआ।
आधुनिक युग गद्य का युग है। मैथिली समाचारपत्रों ने गद्य के विकास में महत्वपूर्ण सहायता दी। इसीलिये मैथिलहितसाधन, मिथ्थिलामोद, मिथिलामिहिर और मिथिला के नाम मैथिली गद्य के इतिहास में अमर हैं। मैथिली लेखशैली की वैज्ञानिक पद्धति का निर्ण म0 भ0 डॉ॰ श्री उमेश मिश्र, रमानाथ झा और वैयाकरणों के द्वारा (विशेषत: दीनबंधु झा द्वारा) हो जाने से आधुनिक गद्य का रूप परिपक्व हो गया है।
उपन्यास और कहानी आधुनिक युग की प्रमुख देन है। इन क्षेत्रों में पहले अनुवाद अधिक हुए, जिनमें परमेश्वर झा के सामंतिनी आख्यान का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। आरंभ्भ में रासबिहारीलाल दास, जनार्दन झा, भोला झा और पुण्यानंद झा की कृतियों प्रसिद्ध हुईं। इधर आकर हरिमोहन झा ने “कन्यादान” और “द्विरागमन” में मैथिली उपन्यास को पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। व्यंग्य, चामत्कारिक भाषा और सजीव चित्रण इनकी विशेषताएँ हैं। “सरोज यात्री”, “व्यास”, झा प्रभृति गत दशक के प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। इन्होंने सामाजिक जीवन के निकटतम पहलुओं को दिखलाने की चेष्टा की है।
“गल्पलेखकों में विद्यासिंधु”, “सरोज”, “किरण”, “भुवन” आदि उल्लेखनीय कलाकर (हरिमोहन झा हास्य रस की अत्यंत ह्रदयग्राही कहानियाँ लिखते हैं)। यंगानंद सिंह, नगेंद्रकुमार, मनमोहन, उमानाथ झा और उपेंद्रनाथ झा हमारे उच्च श्रेणी के कहानीकार है। रमाकर, शेखर, यात्री और अमर कल्पनाशील कहानियाँ लिखते हैं।
निबंध के स्वरूप आदि में देशोन्नति की भावना व्याप्त है। गंगानंद सिंह, भुवन जी, उमेंश मिश्र प्रभृति गंभीर लेख लिखते हैं। भाषा और साहित्य पर लिखनेवालों में दीनबंधु झा, डॉ॰ सुभद्र झा, गंगापति सिंह, नरेंद्रनाथ दास प्रभृति अग्रगझय हैं। दार्शनिक गद्य क्षेमधारी सिंह, डॉ॰ सर गंगानाथ झा आदि ने लिखा है।
आधुनिक मैथिली काव्य की दो मुख्य धाराएँ है, एक प्राचीनतावादी और दूसरी नवीनतावादी। प्राचनतावादी कवि महाकाव्य, खंडकाव्य, परंपरागत गीतिकाव्य, मुक्तक काव्य आदि लिखते हैं। इनमें मुख्य कवि चंदा झा, रघुनंवदनदास, लालदास, बदरीनाथ झा, दत्तबंधु, गणनाथ झा, सीताराम झा, ऋद्धिनाथ झा और जीवन झा हैं। नवीन धारा में देशभक्ति का काव्य, आधुनिक गतिकाव्य, वर्णनात्मक और हास्यत्मक काव्य गिनाए जा सकते हैं। इनमें यदुवर और राधवाचार्य, भुवन, सुमन, मोहन और यात्री, एवं अमर तथा हरिमोहन झा उल्लेखनीय हैं।
विद्यापति के बाद के काल में गोविन्द दास, चन्दा झा, मनबोध, पंडित सीताराम झा, जीवनाथ झा ( जीवन झा ) प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं ।वर्तमान काल मे डॉ॰ हरिमोहन झा, उग्रणारायन मिश्र ‘कनक्’, काशीकान्त मिश्र मधुप, आरसी प्रसाद सिंह, बैद्यनाथ मिश्र यात्री, पंडित काली कान्त झा, सुरेन्द्र झा सुमन, ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म, चन्द्रनाथ मिश्र अमर, दुर्गानाथ झा श्रीश, गोविन्द झा, चन्द्रभानु सिंह, प्रबोध नारायण सिंह, प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन, शशिनाथ चौधरी, प्रभास कुमार चौधरी, ललित, राजकमल, सुधांशु शेखर चौधरी, धूमकेतु, रामदेव झा, राधाकृष्ण बहेड़, रामचरित्र पाण्डेय अणु, राजनन्दन लाल दास, स्नेहलता, विवेकानंद ठाकुर, रामकृष्ण झा किसुन, कांची नाथ झा किरण, मनमोहन झा, जीवकांत, मायानन्द मिश्र, मार्कण्डेय प्रवासी, कालीकान्त झा बूच, श्रीमती सुभद्रा सिंह पाथ्या, गोपाल जी झा गोपेश, फजलुर रहमान हासमी, प्रदीप मैथिली पुत्र, रवींद्र नाथ ठाकुर, गंगेश गुंजन, उषाकिरण खान, लल्लन प्रसाद ठाकुर, नरेश कुमार विकल, मनोरंजन झा, उदय नारायण सिंह नचिकेता, रामलोचन ठाकुर, वासुकीनाथ झा, केदारनाथ लाभ, रामभरोस कापड़ि भ्रमर, मोहन भारद्वाज, मंत्रेश्वर झा, विलट पासवान विहंगम, इलारानी सिंह, वीणा ठाकुर, कीर्ति नारायण मिश्र, , गुणनाथ झा, राजमोहन झा, विद्यापति झा, रामकृपाल चौधरी राकेश, केशकर ठाकुर, धनाकर ठाकुर, प्रदीप बिहारी, केदार कानन, नारायण झा, बुद्धिनाथ मिश्र, श्याम दरिहरे, डॉ गणपति मिश्र, उदय चन्द्र झा विनोद, आशा मिश्र, सियाराम झा सरस, चंद्रमणि, जगदीश प्रसाद मंडल, तारानन्द वियोगी, श्रीमती शांति सुमन, प्रेम शंकर सिंह, अमरेश पाठक, किशोर नाथ झा, देवेन्द्र झा, रमन झा, शेफालिका वर्मा, नवल, गौरी मिश्र, नीरजा रेणु, लिली रे, जयप्रकाश चौधरी जनक, विभा रानी, रामानंद झा रमण, अशोक, रमेश नारायण, रमेश, महेंद्र नारायण राम, रमाकांत राय रमा, सत्य नारायण झा, ज्योत्स्ना चंद्रम्, राजदेव मंडल, शंकरदेव झा, अरविन्द अक्कू, देवशंकर नवीन, कमल मोहन चुन्नू, अजित आजाद, अशोक अविचल, , उपेन्द्र दोषी, रामलखन राम रमण, गजेन्द्र ठाकुर, अमलेन्दु शेखर पाठक, कर्नल मायानाथ झा, सुस्मिता पाठक, नंदिनी पाठक, मनीष अरविन्द, विमला प्रधान, वृखेश चन्द्र लाल, सुकांत सोम, श्यामल सुमन, वाणी मिश्र, अशोक कुमार मेहता, अरुण कुमार कर्ण, कुमार पवन, अरुणा चौधरी, नीता पाठक, शिव कुमार झा टिल्लू, रवींद्र कुमार चौधरी, विनीत उत्पल, आशीष अनचिन्हार, संदीप कुमार साफी, उमेश पासवान, उमेश मंडल, बेचन ठाकुर, कामिनी कामयिनी, गौहर सदरे, रघुनाथ मुखिया, रामसूरत दास, ऋषि वशिष्ठ, अनमोल झा, चन्दन कुमार झा, अमित मिश्र, इरा मल्लिक, निक्की प्रियदर्शिनी, रविभूषण पाठक, बालमुकुंद पाठक, रुपेश त्योंथ, मनोज शांडिल्य, प्रीति ठाकुर, ज्योति चौधरी, आनंद कुमार झा, नारायण झा आदि मैथिली भाषा के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं।
मैथिली के गौरवर्पूण इतिहास में पध के साथ साथ गध साहित्य का अनुपम योगदान है। यहाँ के ग्रामीणोँ मे गोनु झा के चतुराई की कहानियाँ अत्यन्त लोकप्रिय है। यहाँ की भुमि देवस्पर्श की धनी है। यहाँ की भुमि राम सिया के पावन विवाह की साक्षी बनी। यहाँ इस विवाह से संबंधित लोक गीत अति लोकप्रिय हैँ।
नाटक की पुरानी परंपराएँ समाप्त हो गई हैं और जीवन झा ने प्रचुर आधुनिक गद्य का समावेश कर नवीन नाटक की नींव डाली हैं। आनंद झा और ईशनाथ झा के नाटकों का स्थान आधुनिक काल में महत्वपूर्ण है। इधर एकांकी नाटकों का विशेष प्रचार हुआ है। इनके लेखकों में तंंत्रनाथ झा और हरिमोहन झा के नाम प्रमुख हैं।
कविता
मुख्य लेख : मैथिली कविता
कथा
आधुनिक मैथिली कवि एवम लेखक
[तथ्य वांछित ]
रामजी चौधरी (१८७८-१९५२)
बिनोद बिहारी वर्मा
यात्री नागार्जुन
उग्रनारायण मिश्र ‘कनक्’
आरसी प्रसाद सिंह
परमेश्वर झा
सीताराम झा
कविशेखर बद्रीनाथ झा
मुरली झा
सुरेन्द्रनाथ झा सुमन
काशीकांत मिश्र मधुप
चन्द्रनाथ मिश्र अमर
कांचीनाथ झा किरण
प्रोफेसर हरिमोहन झा
आचार्य सर्वनारायण झा
ईशनाथ झा
श्री शंभुनाथ झा
ब्रिजकिशोर वर्मा मणिपद्म
राधाक्रिषण चौधरी
प्रेमशंकर सिंह
सुनिति कुमार चटर्जी
सुरेन्द्रनाथ झा सुमन
सुधांशु शेखर चौधरी
काली कान्त झा बूच
उपेन्द्रनाथ झा व्यास
राधाकांत झा
उमेश मिश्र
डॉक्टर जयकांत मिश्र
सरयूप्रसाद मिश्र आनंद
कुमार गंगानंद सिंह
डॉक्टर चन्द्रनाथ झा मंगरौनी
श्री गयानंद झा
श्री हेमंत कुमार झा
डोक्टर रमानाथ झा
प्रोफेसर तंत्रनाथ झा
आचार्य रामलोचन शरण
डोक्टर लक्ष्मण झा
डॉक्टर सुभद्र झा
अच्युतानंद दत्त
भोलानाथ लाल दास
वैद्यनाथ झा
योगानंद झा
नरेन्द्र दास
राजेश्वर झा
बुद्धिधारी सिंह रमाकर
स्वर्गीया दामोदर लाल दास
मनमोहन झा
बबुआजी झा
मुरली मधुसूदन ठाकुर
श्री विभूति आनंद
श्री रत्नेश कुमार झा
पंडित श्री देवकांत मिश्र
श्रीमति उषाकिरण खान
आशीष अनचिन्हार
रूपेश कुमार झा ‘त्योंथ’
रामलोचन ठाकुर
मिथिलेश झा
अनमोल झा
सत्यानन्द पाठक्
अमर नाथ झा’भारती’
जगदीश प्रसाद मंडल
गजेन्द्र ठाकुर
शिव कुमार झा टिल्लू
विनीत उत्पल
महेन्द्र मलंगिया
प्रकाश झा
गुंजन श्री
नवलश्री “पंकज”
चन्दन कुमार झा
राजीव रंजन मिश्र
अमित मिश्र
बाल मुकुंद पाठक
पवन यादव (पर्देसी)
श्री पद्म नारायण झा ‘विरंचि’
निमिष झा
तारानंद वियोगी
शैलेन्द्र आनन्द
शिवशंकर श्रीनिवास
मंजुला झा
डॉ॰धीरेन्द्र
राजेन्द्र प्रसाद विमल
मंत्रेश्वर झा
श्रीराज
डॉ॰ जगदीश मिश्र
श्यामसुन्दर शशि
नाटक
ओकरा आंगनक बारहमासा: ई नाटक मैथिलीक सबस्’ प्रसिद्ध नाटक अछि | जकर लेखक महेन्द्र मलन्गिया जी छथि |
ओ खाली मुँह देखै छै
गाम नै सुतैये
खिच्चैर
कमला कातक राम, लक्ष्मण आ सीता
देह पर कोठी खसा दिअ
चीनिक लड्डू
बसात
भफाइत चाहक जिनगी
छुतहा घैल
ओरिजनल काम
काठक लोक
डाक बाबू
काजे तोहर भगवान
मैथिली आर संस्कृत संबंध बताबू।
मैथिली प्राकृत संबंध।
वर्ण विपर्यक के बारे मे बताबू।